Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२२२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
मे नकारादि शब्द को असम्भव मानते हैं। इसके विपरीत त्रिविक्रम देशी भाषा मे 'न' को बनाये रखने के पक्ष मे थे। यथा---'निरुप्पइ', 'अनल' आदि। अत यह आवश्यक है कि इन सब प्राकृत वैयाकरणो के अनुशासन को उपलब्ध प्राकृत भोपाओ के साहित्य के परिप्रेक्ष्य मे पुन जाचा-परखा जाय । डा० पिशल ने जो परिश्रमपूर्वक 'प्राकृतभाषाओ का व्याकरण' लिखा है उस पति पर अव पुन एक ऐसा प्राकृत व्याकरण भाष्य तयार होना चाहिए, जिसमे पिशल के अतिरिक्त एव अन्य प्राकृत कोशो के बाहर के प्राकृत शब्दो पर व्याकरण की दृष्टि से अनुसंधान सम्मिलित हो। पिछले दशक मे पर्याप्त प्राकृत-अपभ्र श साहित्य प्रकाश में आया है। उस सबका उपयोग करते हुए एक वृहत् प्राकृत व्याकरण के निर्माण की नितान्त आवश्यकता है।
सदर्भ १ द्रष्टव्य, रत्नायेयान्, ‘ए क्रीटीवल स्टडी आफ महापुराण अफ पुष्पदन्त', महादावाद
१९६६, पृ० ९.४८। २ स्थानागसूत्र, स्थान ७, सूत्र ५५३, विशेपावश्यक भाष्य, गाथा १४६६ की टीका। ३ प्राक् पूर्व कृत प्राकृत, वालमहिलादिसुवोध सकलभापानिवन्धमूत वचनमुच्यते । - __काव्यालकार २/१२ की टीका । ४ द्रप्टव्य, पाइयमदमहणावो, उपोद्घात, पृ० २३ आदि । ५ मुनि नगराज, 'प्राकृतभाषा उद्गम विकास और भेद प्रभेद', आनन्दापि अभिनन्दन
ग्रन्थ, पृ० ३-३१ । ६ अणुमोगदारसुत्त, सूत्र १३० । ७ वही, सून १२८ ।। ८ दुर्गाचार्य की निरक्तवृत्ति, पृ० १०, पाकटायन-व्याकरण (सूत्र १ २ ३७), यशस्तिलक__ चम्पू (म० १, पृ० ६०) आदि । ९८०य, डा० वर्नेल 'ऑन दी ऐन्द्र स्कूल आफ ग्राभेरियन्स' । १० शाह, प० अम्बालाल, जन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ५, पृ० ६ । ११ जैन, हीरालाल , भारतीय संस्कृति मे जन धर्म का योगदान, पृ० १८३ । १२ Upadhye, A N , A Prakrit Grammar attributed to Samantabhadra
Indian Historical Quarterly Vol XVII 1942, PP 511-516 १३ जन, हीरालाल, 'ट्रेसेज ओफ एन ओल्ड मीट्रिकल ग्रामर'
-मारतकौमुदी (पृ० ३१५-२२) । १४. पिशेल, 'प्राकृतभापाओ का व्याकरण' (हिन्दी अनुवाद-जोशी), पृ० ६५-६६ । १५ वही, अनुवादक डा० हेमचन्द्र जोशी का फुटनोट द्रष्टव्य । १६ मायाणी, एच मी , ५उमचरिउ, भूमिका, पृ० १२१ । तथा
तावच्चिय सच्दो ममइ अवघ्भम-मच-मायगो। जावण सयभु-वायग्ण-अकुसो पड६॥ ५मचरिउ, गाथा, ३-४ ।