Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२३४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा
प्राप्त नहीं है। वृत्तिकार अमयदेवसूरि ने सभावित रूप से छियालीस मातृकाक्षरो की जानकारी इस प्रकार दी है"
* ऋ ल ल इनका वर्जन कर शेष १२ स्वर। क से म तक व्यंजन (५४५) = २५ अन्तस्य य र ल व ऊष्म श प स ह
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आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राकृत वर्णमाला के अक्षर ३८ होते हैं। उनके अनुसार प्राकृत मे *, ऋ, लु, ल, ऐ, औ, अ ये स्वर तथा ड, ब, श, प व्यजन नहीं होते।
स्ववर्य सयुक्त ड और न को मान्य किया है।
ऐ और औ को भी मतान्तर के रूप मे मान्य किया है। मागधी मे दन्त्य मकार के स्थान पर तालव्य शकार होता है। इस प्रकार पाच वणों के बढ जाने पर वर्णमाला के अक्षर ४३ हो जाते है । तीन वर्गों के प्रयोग आधुनिक प्राकृतो में नहीं मिलते।
पालि व्याकरण मे ४१ अक्षर निर्दिष्ट है अ आ इ ई उ ऊ ए ओ। क ख ग घड। च छ ज झ न । ट ठ ड ढ ण त थ द ध न । प फ ब भ म । य र ल व । स प ह ळ अ । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण मे ड और न इन दोनो वों को वजित माना है, किन्तु पालि व्याकरण मे ये दोनो मान्य हैं।
सत्यवचन के साथ व्याकरण का सबंध माना गया है। सत्यभापी को नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, सन्धि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविवान, धातु, स्वर, विभक्ति और वर्ण को वोध होना चाहिए । सत्यवचन इनके वोध से युक्त होता है । ५०
इस प्रतिपादन से ज्ञात होता है कि व्याकरण-वोध की अनिवार्यता प्राचीनकाल से मानी गई है।
दशवकालिक के आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद इन तीनो शब्दो का अर्थ चूणि और टीकाकाल तक व्याकरण से संबंधित था।
अगस्त्यमिह स्थविर ने आचारधर और प्रतिघर का अर्थ भाषा के विनयोनियमों को धारण करने वाला किया है। जिनदास महत र के अनुसार 'आचारधर' शब्दो केनि. को जानता है ५२
टीhi 1• ने भी यही अर्थ किया है। प्रप्तिधर का अर्थ लिंग का विशेष जानकार और दृष्टिवाद के अध्येता का अर्थ प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्णाधिया, कान, १२ आदि व्याकरण के अगो को जानने वाला किया है।५१