Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २५१
कल्पतरु अभी तक प्रतिलिपि के दोष के कारण सपूर्ण रूप मे प्रकाशित नही हो सका था । इसका श्रेय डॉ० मनमोहन घोप को दिया जा सकता है, जिन्होने उसके सपूर्ण रूप का संपादन कर एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता से १९५४ मे प्रकाशित किया । इसी के परिशिष्ट मे प्राकृत कामधेनु आदि जैसे अल्पकायिक प्राकृत व्याकरणो को भी सम्मिलित कर दिया गया । प्राकृत व्याकरण के पूर्वी सम्प्रदाय मे मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्व ( १६ - १७वी शताब्दी) सम्भवत सर्वोत्तम माना जा सकता है | इसका प्रथम सम्पादन एस० पी० व्ही० भट्टनाथ स्वामिन् ने किया जिसका प्रकाशन विजगापट्टम से १९२७ में हुआ । अभी एक नया संस्करण प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद से १६६५ मे हुआ जिसके सपादक हैं कृष्णचन्द्र आचार्य । कुछ और नई प्रतियो का आधार लेकर उसे आधुनिक दृष्टि से सपादित किया गया है। सपादक ने १६४ पृष्ठ की अग्रेजी मे भूमिका लिखी है जिसमे उन्होने मार्कण्डेय का काल, प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति, प्राकृत वोलियो का तुलनात्मक अध्ययन आदि विषयो पर सप्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत की है ।
आचार्य हेमचन्द्र ( १०८८ - ११७२ ई० ) पश्चिमी सम्प्रदाय के सर्वमान्य प्राकृत वैयाकरण हुए हैं। मिद्धहेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय मे उन्होने प्राकृत व्याकरण को परिबद्ध किया । इसका सर्वप्रथम सम्पादन Pischel ने (Halle, १८७७, १८८० ) किया । इसके पूर्व कृष्ण महावल ने Introductien to the Hemachandra Vyakarana (बम्बई, १८७२) लिखा । SP पण्डित ने अपने कुमारपालचरित के परिशिष्ट मे इसका पुन सम्पादन किया (BSS. १९००) (पूना, १९२८) और उसी का बाद मे डॉ० पी० एल० वैद्य ने उसे १९२८ मे सम्पादित किया । संशोधित संस्करण १९५८ मे पूना से ही प्रकाशित हुआ । इसकी प्रियोदय नामक हिन्दी व्याख्या सहित उपाध्याय रत्न मुनि ने अनुवा दित कर व्यावर से दो भागो मे प्रकाशित किया। प्रथम भाग विक्रमाब्द २०२० मे निकला और द्वितीय भाग २०२४ मे । इस संस्करण के परिशिष्ट भाग मे प्रत्यय बोध, सकेत बोध, तृतीय पाद शब्दकोष रूप सूची और चतुर्थपाद शब्दधातुकोष रूप सूची दी गई है । इससे इस सस्करण की विशेष उपयोगिता सिद्ध हो सकी । शा० भीमसिंह माणेक ने निर्णय सागर प्रेस, मुबई से दुढिका टीका भापान्तर सहित भी १९०३ मे इसका प्रकाशन किया था ।
त्रिविक्रम ( १३वी शती) के प्राकृतशब्दानुशासन के तीन अध्यायो मे से प्रथम अध्याय विजगापट्टम् से १८९६ मे प्रकाशित हुआ और सपूर्ण सस्करण टी० लड्डू ने १९१२ मे प्रकाशित किया । एक अन्य संस्करण बटुकनाथ शर्मा और बलदेव उपाध्याय के सपादकत्व मे बनारस से भी निकला । पी० एल० वैद्य ने भी अच्छी भूमिका सहित उसे सपादित कर जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से १९५४ मे प्रकाशित किया वृत्ति के साथ। सपादक ने इसके सपादन मे विजगा