Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२१८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
२ वर्ण के स्थान पर अ, इ, उ औ रि का प्रयोग। यथा नृत्य >णच्चो, तृण >तिणो, मृषा> मुसा, ऋपि > रिसि आदि ।
३ ऐ और ी के स्थान पर ए, ओ का प्रयोग पाया जाता है। यथा शैल >सेली, कौमुदी>कोमुई आदि। कही-कही अइ और अउ रूप भी मिलते है-देव >दइवे, पौर >पउरो आदि।
४ प्राय हस्व स्वर सुरक्षित है। यथा अक्षि > अक्खि, अग्नि > अगि आदि।
५ सयुक्त व्यजनो के पूर्ववर्ती दीर्थस्वर ह्रस्व हो गये है। यथा शान्त > सती, शाक्य > सक्को आदि ।
६ सानुनासिक स्वर बदलकर दीर्थस्वर हो जाते हैं । यथा सिंह > सीहो आदि।
७ प्राकृत मे विसर्ग का प्रयोग नहीं होता। उसके स्थान पर ए या ओ हो जाता है । यया- राम > रामो, देव > देवे ।
८ पदान्त व्यजनो का लोप हो जाता है। यथा पश्चात् >५च्छा, यावत् > जाव आदि।
६ श, प और स के स्थान पर केवल स का प्रयोग। यथा--अश्व > अस्सी, मनुष्य > माणुसो आदि ।
१० दो स्वरो के बीच मे आने वाले क ग च ज त द व का प्राय लोप हो जाता है । यथा मुकुल > मुउलो, नगरम् > णयर, शची>सई, प्रजापति >पयावई, यति >जई, मदन >मयणो, रिपु >रिउ, जीव >जीओ आदि।
११ सयुक्त व्यजनान्त ध्वनियो का समीकरण हो गया है। यया पक > चक्को, लक्ष्मी > लच्छी, वृक्ष >वच्छो आदि ।
१२ द्विवचन का लोप हो गया है। १३ हलन्त प्रतिपादिक समाप्त हो गये है।
१४ पप्ठी का प्रयोग चतुर्थी के स्थान पर और चतुर्थी का प्रयोग पठी के स्थान पर होने लगा है।
१५ न के स्थान पर प्राय ण का प्रयोग होता है। इत्यादि । अर्धमागधी (आर्ष प्राकृत)
जन आगमो की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। याकरणो ने अर्धमागधी को आप भापा मानकर उसके नियमो का विधान नहीं किया है। क्योकि अर्धमागधी का रूपगठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओ से मिलकर हुआ है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र मे अर्धमागधी का उल्लेख किया है (१८३५-३६) । किन्तु वररुचि ने अपने ग्रन्थ मे इसका नाम नहीं लिया है। क्योकि उनका उद्देश्य