Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२१२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
भिन्नता है। वस्तुत पर९चि के प्राकृतप्रकाश' और 'सक्षिप्तसार' मे वडा घनि०० सम्बन्ध दिखायी देता है। किन्तु कई स्थलो पर क्रमदीश्वर ने अन्य लेखको की सामग्री का भी उपयोग किया है। लास्सन ने क्रमदीश्वर के इस ग्रन्थ पर अच्छा प्रकाश डाला है । 'प्राकृतपाद' का सम्पूर्ण संस्करण राजेन्द्रलाल मित्र ने प्रकाशित कराया था। तथा १८८६ मे कलकत्ता से इसका एक नया सस्करण भी प्रकाणित हुआ था।
मार्कण्डेय-प्राकृत सर्वस्व .
प्राकृत व्याकरणशास्त्र का प्राकृतसर्वस्व' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके ग्रन्यकार मार्कण्डेय प्राच्य शाखा के प्रसिद्ध प्राकृतियाकरण थे। मार्कण्डेय का यह प्राकृत व्याकरण प्रारम्भ मे भट्टनाथ स्वामी द्वारा सम्पादित होकर १९२७ मे ग्रन्यप्रदर्शिनी, विजापट्टम से प्रकाशित हुआ था। किन्तु बाद मे अन्य पाण्डुलिपियो के आधार पर विद्वत्तापूर्ण वजानिक मस्करण डा० के० सी० आचार्य ने १९६८ मे प्राकृत टेक्ट सोसायटी अहमदाबाद से प्रकाशित किया है । इस सस्करण मे मार्कण्डेय की तिथि १४६०-१५६५ ई० स्वीकार की गयी है तथा ग्रन्थकार और उनकी कृतियों के सम्बन्ध मे विस्तार से विचार किया गया है ।५३
मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के चार भेद किये हैं – भापा, विमापा, अपभ्र श और पंशाची। भाषा के पाच भेद है महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी। विमापा के कारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरी और ढक्की ये पाच भेद है। अपभ्र श के तीन भेद है नागर, प्राचर्ड और उपनागर तया पंशाची के कैकई, पाचाली आदि भेद है। इन्ही भेदोपभेदो के कारण डा० पिशल ने कहा है कि महाराष्ट्री, जनमहाराष्ट्री, अर्धमागधी और जनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत वोलियो के नियमो का जान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृतसर्वस्व' वहुत मूल्यवान है ।५५ ।
प्राकृत सर्वस्व के प्रारम्भ के आठ पादो मे महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये गये हैं। इनमे प्राय वररुचि का अनुसरण किया गया है। नौवें पाद मे शौरसेनी और दसवे पाद मे प्राच्या का नियमन है। विदूपक आदि हास्य पात्रो की भाषा को प्राच्या कहा गया है । ग्यारहवें पाद मे अवन्ती वाल्हीकी का वर्णन है। बारहवें मे मागवी के नियम बताये गये है। अर्धमागधी का उल्लेख इसी पाद मे आया है। इस प्रकार से १२ पादो को भापाविवचन का खण्ड कहा जा सकता है। १३वे से १६वे पाद तक विभाषा का अनुशासन किया गया है। शाकारी, चाण्डाली, गावरी आदि विभापाओ के नियम एक उदाहरण यहां दिये गये है। एक सूत्र म ओडी (उडिया) विमापा १०। कथन है तथा एक मे आभीरी का। ग्रन्य के १७७ ॥ १८वे पाद मे अपभ्रश भाषा का तथा १६व और २०वे पाद मे पैशाची भाषा