Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्यापारणणारत्न का उद्भव एव विकास २१३ का नियमन हुआ है । अपभ्रश के उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे भी दिये गये है। इस तरह मार्कण्डेय ने अपने समय तक विकसित प्राय सभी लोक भापाओ को, जिनका प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अपने व्याकरण में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है। ___मार्कण्डेय केवल वैयाकरण ही नहीं था, अपितु प्राकृत का कवि भी था। उसने अपने प्राकृत सर्वस्व मे अनेक ऐसे उदाहरण दिये हैं, जिनके स्रोतो का पता नहीं चलता। और वे सभवत स्वय ग्रन्थकार के ही किसी काव्यग्रन्थ के होने चाहिए । डा० आचार्य ने 'विलासवतीसट्टक' को मार्कण्डेय की रचना होने की सम्भावना व्यक्त की है। इस ग्रन्थ की एक सम्भावित गाथा इस प्रकार है
पदुम जीविअसरिच्छ। तत्तो सुहवी तदो पुणो धरिणी।
चडि ति भणसि एण्हि ण मुणमि काहे हुवेज चामुडा॥ [प्रयम मुझे जीवन-सदृश (प्राणप्रिय) कहा, फिर सुखदातृ तथा बाद मे गृहणि । और जब तुम मुझे चडी (क्रोध करने वाली) कह रहे हो । मैं नही जानती कि मैं कव चामुडा कही जाने लगी ]
इसी प्रकार मार्कण्डेय ने प्राचीन वैयाकरणो के सम्बन्ध मे भी कई तथ्य प्रस्तुत किये है ।५° उनमे से शाकल्य एव कोहल निश्चित रूप से प्राकृत के प्राचीन वैयाकरण रहे होगे, जिनके प्राकृत सम्बन्धी नियमन से प्राकृत व्याकरणशास्त्र समय-समय पर प्रभावित होता रहा है। यद्यपि अभी तक इनके मूल ग्रन्थो का पता नहीं चला है। इस तरह मार्कण्डेय का 'प्राकृतसर्वस्व' कई दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्य है। पश्चिमीय प्राकृत भाषाओ की प्रवृत्तियो के अनुशासन के लिए जहा हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप मे प्रसिद्ध है, वहा पूर्वीय प्राकृत की प्रवृत्तियो का नियमन मार्कण्डेय के इस व्याकरण से पूर्णतया जाना जा सकता है । पूर्वीय प्राकृत वैयाकरणो के सम्बन्ध मे डा० सत्यरजन बनर्जी ने अपनी थीसिस मे पर्याप्त प्रकाश डाला है।५८
अन्य प्राकृत व्याकरण प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे लगभग २-३वी शताब्दी से १५-१६वी शताब्दी तक मे हुए इन प्रमुख प्राकृत वैयाकरणो के ग्रन्थो से स्पष्ट है कि प्राकृत भापा के विभिन्न पक्षो पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है। प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से १६वी से २०वी शताब्दी तक अनेक प्राकृत के व्याकरण ग्रन्य लिखे गये हैं। इन्हे दो भागो मे विभक्त कर सकते हैं । (१) १६वी से १८वी शताव्दी तक के परम्परागत प्राकृत व्याकरण तथा (२) १६वी-२०वी शताब्दी के