Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०६
का नियमन हेमचन्द्र ने किया है। इस तरह की आदर्श प्राकृत व्याकरण की रचना कर हेमचन्द्र ने परवर्ती प्राकृत वैयाकरणो को भी इस क्षेत्र मे कार्य करने के लिए प्रेरित किया है । परवर्ती प्राकृत व्याकरणग्रन्यो के मूल्याकन से यह स्पष्ट होता है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ने उन्हे कितना आधार प्रदान किया है।
पुरुषोत्तम-प्राकृतानुशासन
हेमचन्द्र के समकालीन एक और प्राकृत वैयाकरण हुए है पुरुषोत्तम । ये बगाल के निवासी थे। अत इन्होने प्राकृत व्याकरणशास्त्र की पूर्वीय शाखा का प्रतिनिधित्व किया है। पुरुषोत्तम १२ वी शताब्दी के वैयाकरण हैं। उन्होने प्राकृतानुशासन नाम का प्राकृत व्याकरण लिखा है। यह ग्रन्थ १६३८ मे पेरिस से प्रकाशित हुआ है । एल० नित्ती डोल्पी ने महत्वपूर्ण फैन्च भूमिका के साथ इसका सम्पादन किया है ।" १६५४ मे डा० मनमोहन चोप ने अंग्रेजी अनुवाद के साय मूल प्राकृतानुशासन को 'प्राकृतकल्पतर' के साथ (पृ० १५६-१६६) परिशिष्ट १ मे प्रकाशित किया है।
प्राकृतानुशासन मे तीन से लेकर बीस अध्याय है। तीसरा अध्याय अपूर्ण है। प्रारम्भिक अध्यायो मे सामान्य प्राकृत का निरूपण है। नौवे अध्याय मे शौरसेनी तथा दस मे प्राच्या भाषा के नियम दिये गये है। प्राच्या को लोकोक्ति-बहुल बनाया गया है। ग्यारहवे अध्याय मे अवन्ती और वारहवे मे मागधी प्राकृत का विवेचन है। इसके बाद विभापाओ मे शाकारी, चाडाली, शाबरी और टक्कदेशी का अनुशासन किया गया है । उससे पता चलता है कि शाकारी मे 'क' और टक्की मे उद् की बहुलता पाई जाती है । इसके बाद अपभ्रश मे नागर, ब्राचड, उपनागर आदि का नियमन है । अन्त मे कैकय, पैशाचिक और शौरसेनी पैशाचिक भाषा के लक्षण कहे गये हैं।
त्रिविक्रम-प्राकृतशब्दानुशासन
त्रिविक्रम १३ वी शताब्दी के वैयाकरण थे। उन्होने जैनशास्त्री का अध्ययन किया था तथा वे कवि भी थे। यद्यपि उनका कोई काव्यग्रन्य अभी उपलब्ध नही है। त्रिविक्रम ने 'प्राकृतशदानुशासन' मे प्राकृत सूत्रो का निर्माण किया है तथा स्वयं उनकी वृत्ति भी लिखी है
प्राकृतपदार्यसार्यप्राप्त्य निजसूत्रमार्गमनुजिगमिषताम् ।
वृत्तियथार्थसिद्धय विविक्रममेणामक्रमाक्रियते ।। ६ ।। इन दोनो का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन व प्रकाशन डा० पी० एल० वद्य ने सोलापुर से १९५४ मे किया है । यद्यपि इससे पूर्व भी मूल ग्रन्थ का कुछ अश १८६६ एव १६१२ मे प्रकाशित हुआ था। किन्तु वह ग्रन्य को पूरी तरह प्रकाश मे नही लाता