Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२०८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा
लिखी है, जिसे 'प्राकृतवृत्तिदीपिका' भी कहा गया है। यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है।
२ जिनसागरसूरि ने ६७५० श्लोकात्मक 'दीपिका' नामक वृत्ति की रचना की है।
३ आचार्य हरिप्रममूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण के अष्टम अध्याय मे आगत उदहरणो की व्युत्पत्ति सूत्रो के निर्देश-पूर्वक की हे। २७ पनो की यह प्रति एल० डी० इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद मे उपलब्ध है । हरिप्रभसूरि का समय अज्ञात है।
४ वि० स० १५९१ मे उदयसौभाग्याणि ने 'हैमप्राकृतदुढिका' नामक वृत्ति की रचना की है । इसे 'व्युत्पत्तिदीपिका' भी कहते है । यह वृत्ति भीमसिंह माणेक, 4बई से प्रकाशित हुई है।
५ मलवारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण पर एक अवचूरि रूप ग्रन्थ की रचना की है। इसका नाम 'प्राकृतप्रबोध' है। 'न्यायकन्दली' की टीका मे राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्य का उल्लेख किया है। प्राकृतप्रवोध को पाण्डुलिपिया ला द० भारतीय संस्कृति विद्यामदिर अहमदाबाद मे उपलब्ध हैं।
६ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र निर्मित वृत्ति को पद्य मे निर्मित किया है। इसका नाम 'प्राकृतव्याकृति' है, जो 'अभिवानराजेन्द्र' कोश के प्रथम भाग के प्रारम्भ मे रतलाम से वि० स० १६७० मे छपी है। ___७ हेमचन्द्र द्वारा जो अपभ्र श व्याकरण के प्रसग मे दोहे दिये गये है उन पर 'दोधकवृत्ति' लिखी गयी है, जो हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित
८ 'हेमदोक्कार्थ' नामक एक टीका की सूचना जनप्रन्थावली' से प्राप्त होती है । उसमे (पृ० ३०१) यह भी कहा गया है कि १३ पनो की इस टीका की एक पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है।
हेमन्दानुशासन ५२ दुढिका लिखी गई है। उसके दो परण ही अब तक उपलब्ध और प्रकाशित थे। किन्तु पारो चरणवाली एक प्रति श्वेताम्बर तेरापथ श्रमण ग्रन्य भडार, लाउनू मे उपलब्ध है। मुनि श्री नथमल ने स्वरचित 'तुलसीमजरी' नामक प्राकृत-व्याकरण मे इस (दुढिका वृत्ति) का विशेष रूप से उपयोग किया है । तुलसीमजरी अपनी सुवोध शैली एव विशद विवेचन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्राकृत व्याकरण शीत्र प्रकाशनाधीन है।
तरह प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे हेमप्राकृतव्याकरण का कई दृष्टियो से महत्व है। आपप्राकृत का सर्वप्रथम उममे उल्लेख हुआ है। प्राकृत
व अपभ्रश भाषा के प्राय मभीपी का उसमे अनुशासन हआ है। न केवल गाहित्य में प्रयुक्त गर अपितु व्यवहार में प्रयुक्त प्राकृत, अपभ्रण एव देशी शब्दो