Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
किया है। उसके वाद "झरोझरि सवर्णे" सूत्र से थकार का लोप तथा श्वरि च " सूत्र से दकार को तकार करके "उत्थानम् " प्रयोग की सिद्धि की गई है । भिक्षुशब्दानुशासन इस प्रयोग की सिद्धि के लिये इतनी लम्बी प्रक्रिया की जगह सरल प्रक्रिया को अपनाता है । उसका सूत्र है 'उद स्थास्तम्भो स ।" उसके द्वारा उद् शब्द के आगे रहने वाले स्था और स्तम्भ के सकार का लोप कर दिया जाता है । फलस्वरूप सकार का पूर्वसवर्ण तथा थकार का लोप जैसी प्रक्रिया नही करनी पडती । यह एक लाघव है । भिक्षुशब्दानुशासन के पूर्ववर्ती जैनेन्द्र ने तो उत्थानम् की सिद्धि के लिये पाणिनि की सरणि को ही अपनाया । इनका सूत्र "स्यास्तम्भो पूर्वस्योद " ५।४।१३५ उद् से पर मे रहने वाले स्था और स्तम्भ को पूर्व का रूप करता है | इससे स्पष्ट है कि ये पाणिनि की परम्परा का अनुसरण कर रहे है । शाकटायन यहाँ पाणिनि से भिन्न सरणि को अपनाते है । इन्होंने “उद स्वास्तम्भ १|१|१३४ सूत्र बनाया और इसके द्वारा स्था के सकार का लोप कर दिया गया । इतना अवश्य है कि सकार के लोप के लिये "जर्" प्रत्याहार का अवलम्वन किया गया । अर्थात् उद् से पर मे रहने वाले जर् ા જોષ हो जाता है यदि उसके आगे भी जर रहे तो । इस प्रकार सकार का लोप करके શાČાયન ને પ્રયિા તાધવ ળા પ્રવર્ધન યિા । મિક્ષુધાવ્વાનુશાસને યક્ષ્ાઁ શાદાયન से प्रभावित है । किन्तु शाकटायन जहाँ जर् प्रत्याहार के द्वारा सकार लोप विधान करते है, वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन "उद स्थास्तम्भो स सूत्र के द्वारा सीधे सकार का लोप विधान कर सरलीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढाता है ।
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पाणिनि परम्परा मे जो रूप पूर्वरूप या पररूप करके बनाये जाते है, भिक्षुशब्दानुशासन वहाँ लोप करके उसको बनाता है । उदाहरण के लिए
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१ राम् +अम् "अमिपूर्व " सूत्रसे पूर्वरूप करके रामम् बना (पाणिनि) । राम् [ अम् = "समानादम सूत अम् के अकार का लोप करके रामम् वना, (भिक्षुशब्दानु० ) ।
२ प्र + एजते = "एडि पररूपम् " सूत्र से पररूप करके प्रेजते रूप बनता है (41 FUIFFT) 1
प्र + एजते=एदेतोरुपसर्गस्थलीप " सूत्र से उपसर्ग के अकार का लोप करके प्रेजते रूप की सिद्धि होती है
( भिक्षु० ) ।
३. शक | अन्धु =शकन्ध्वादिपु पररूप वाच्यम् इस वार्तिक से ककारोत्तरवर्ती अकार का पररूप करके "शकन्धु" रूप बनता है
(पाणिनि) ।
शक + अन्धु = "शकादीना टेरन्धादिषु" इस सूत्र से टिलोप (अकारलोप) करके शकन्धु वना ।
( भिक्षु० ) ।
गुण और
१२ वृद्धि सज्ञाए भिक्षुशब्दानुशासन मे नही है। साथ ही अकार के आगे जहां ऋ और लृ रहता है वहाँ क्रमश गुण रूप मे अर् और अल् तथा वृद्धिरूप मे લાર્ ઔર્ બાત્ હોતા હૈ ખૈલે