Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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भिक्षुशव्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८५
।' १४. निकषा समयाहाधिगन्तरान्तरेण तियेन तेने २।४।४६ । ',
(भिक्षु शब्दानुशासन) 'अभित परित समयानिकपा हा प्रतियोगेऽपि (पाणिनीय वातिक) । अन्तराअन्तरणयुक्त २।३।४ (पाणिनि )... - । - [.. - | अतितिक्रमणेच १४॥६५ ।। {} T. . . - ।। उपर्युक्त सूत्र और वातिक द्वितीया विभक्ति का विधान करते हैं। विवेचन करने से स्पष्ट होता है कि पाणिनि परम्परा के दो सूत्र और एकावातिक मे जितने शब्दो का उल्लेख किया गया है, वे सारे शब्द भिक्षुशब्दानुशासन के एक ही सून मे समाहित हैं। इसके अतिरिक्त "येन और तन" 'ये दो५८ पाणिनिासे यहा अधिक हैं। येन तेन वा पश्चिमाात।" इस प्रयोग मे द्वितीया विधायक सूत्र पाणिनि मे
अभित और परित के योग मे द्वितीया करने के लिये । । । । । सर्वोभयाभिपरिभिस्तसन्त २।४।५० यह भिक्षुशब्दानुशासन का सूत्र है।।
५ कालभावाध्वदेशमकर्मचाकर्मणाम २।४।१७ (भिक्षु शब्दानु) ।
अकर्मक धातुओ के योगा रहने पर कालादि आधार की कर्म सज्ञा विकल्प से होती है। विकल्प से करने का तात्पर्य यह है कि कर्म सज्ञा के अभाव पक्ष मे वह अधिकरण सशक हो जाता है। एक बात यह विशेष रूप से ध्यान देने का है कि जिस पक्ष मे आधार की कर्म साहोती है, उसी पक्ष मे उसे अकर्म 'सशाभी विकल्प से की गई है ।
, । । पाणिनि परम्परा मे इस कार्य के लिये निम्नलिखित वातिक पाया जाता है 1 अकर्मधातुभियोग देश कालो . भावो गन्तव्योऽवा' च कर्मससक इतिवाच्यम् ।
। 1. इस वातिक के द्वारा कालादिको की कर्मसंज्ञा नित्य ही की गई है। इसलिये पाणिनि मतानुसार मासमारते प्रयोग बनेगा और भिक्षुशब्दानुशासन के द्वारा "मासमास्ते" के साथ मासे आस्ते" यह प्रयोग भी बनेगा। किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन मे कालादिको की कर्मसंज्ञा के साथ "अकर्म" सज्ञा करने का क्या फला है, यह बात अन्वेषणीय है। - । । -
।।
. ६. अविवक्षित कर्मणाम निन् कर्ता जो वा २।४।२० (भिक्षु०) । ।' जिन धातुओ के कर्म की अविवक्षा कर दी जाती है, उन धातुओ की अजित् अवस्था का जो का होता है, वह जित् प्रत्यय करने पर कर्मसशक विकल्प से होता है। उदाहरणार्य
। 1,"पेय पचति, मल प्रेरयति "इस अर्थ मे जिच् प्रत्यय करने पर पापयति" यह क्रियारूप बनता है। पैन जो निच प्रत्यय से पूर्व प्रेरणाश विहीनधात्पर्य का का है, उसे इस अवस्था मे वैकल्पिक कर्मसज्ञा होकर "चन चत्रेण वा पापयति