Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
ततिया करणम्मि क्याणीत व कत तेण व भए वा । हदि णमो साहाए, हवति चत्थी पदाणमि ||४|| લવશે વિમુ તત્તો, ત્તોત્તિ વધત્તમી મન્ત્રાવાળું | छुट्टी तस्म इमम्स व गतस्स वा सामि मवधे ||५|| हवड पुण मत्तमी तमिमम्मि आहारकाल भावे य । आमतणी भवे अट्टमी उ जह है जुवाण । ति ॥६॥ स्थानागमूर्व, अष्टम स्थान, सूत्र २४ इस प्रकार इसमे बताया गया है कि निर्देश मे प्रथमा विभक्ति होती है । यथा - सो, इमो, अह आदि । उपदेश मे द्वितीया विभक्ति होती है । यया त आदि । करण मे तृतीया होती है । यथा - तेण णीत, मए कत आदि । सम्प्रदान मे चतुर्थी विभक्ति और अपादान मे पचमी होती है | स्वामित्व भाव अथवा सम्बन्ध मे पण्ठी होती है । जैसे तस्स, इमस्स आदि । अधिकरण मे सप्तमी और आमन्त्रण सम्बोधन मे आठवा कारक होता है । यथा हे जुवाण | आदि ।
इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र मे शब्दानुशासन सम्बन्धी पर्याप्त विवेचन हुआ है । समस्त शब्दराशि को नामिक, नेपातिक, आख्यातिक, ओपसर्गिक और मिश्र के अन्तर्गत विभक्त किया गया है ।" नाम शब्दों की चार प्रकार की निप्पत्ति होती है आगम, लोप, प्रकृतिभाव एव विकार । इन चारों के उदाहरण स्वरूप प्राकृत शब्द दिये गये हैं ।
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इम,
पदो को तीन लिंगो मे विभक्त किया गया है तथा अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त और ओकारान्त शब्दो को पुल्लिंग कहा गया है । स्त्रीलिंग शब्द जोकारान्त से रहित होते है । तथा नपुसकलिंग मे अकारान्त और उकारान्त शब्दो के उदाहरण दिये गये है । यया
त पुणणाम तिविहि इत्थी पुरिस णपुसग चेव । एएसि तिन्ह पि अतम्भि अ परुवण वोच्छ ॥१॥ તત્વ રિસસ્ત મ્રુતાબા ૩ બો હેત્તિ પત્તારિ । ते चेव इत्यिाओ हवति ओंकार परिहीणा ॥२॥ अतिम इति उति अताउ णपुसगस्स वोद्धव्वा । एतेसि तिष्ह पि अ वोच्छामि निदसणे एत्तो ॥ ३॥ आगारतो राया ईमारतो गिरि अ सिहरी अ । उगारतो विण्हू दुमो अ अताउ पुरिसाण ||४|| आगारता माला ईमारता सिरी अ लच्छी अ ।
ऊगारता जनू बहू अ
अतार इत्यीण ॥५॥