Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२०० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण ओर कोण की परम्परा
प्राकृत वैयाकरणो एव उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्याकन यहा प्रस्तुत है, जिसमे ग्रन्थकार का परिचय, ग्रन्य की विषयवस्तु, वैशिष्टय एव प्रकाशन सम्बन्धी जानकारी को प्रमुखता दी गयी है।
आचार्य भरत ___प्राकृत भाषा के सम्बन्ध मे जिन मस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये है, इनमे भरत सर्व प्रथम है । प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व' के प्रारम्भ मे अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणो के माय मरत को स्मरण किया है।" भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नही मिलता है । भरतनाट्यशास्त्र के १७वे अध्याय मे ६ से २३ ५लोको मे प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वे अध्याय मे प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध है, किन्तु स्रोतो का पता नहीं चलता है।
डॉ० पी० एल० वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन सम्करण के १७वें परिशिष्ट में भारत के लोको को सशोधित ६५ मे प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वणित है । डा० वैद्य ने उन नियमो को भी स्पष्ट किया है । भरत ने कहा है कि प्राकृत मे कौन से स्वर एक कितने व्याजन नही पाये जाते । कुछ व्यजनो का लोप होकर उनके कवल स्वर वचते है। ख, घ, थ, ध एव भ का परिवर्तन ह मे हो जाता है । यथा
पच्चति कगतदयवा लोप, अत्य च से वहति सरा।
खयधभा उण हत्त उति अत्थ अमुचता ।।८।। प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने सकेत किया है कि शकार का सकार एक नकार का सर्वत्र णकार होता है । यथा -विप-विस, शङ्का सका आदि । इसी तरह ट = ड, = ढ, प=व, ड =ल, च =य, य= ध, प=फ आदि परिवर्तनो के सम्बन्ध मे सकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने सयुक्त वर्णो के परिवर्तनो को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त मे कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैंने कहे हैं। वाकी प्रसिद्ध ही है, जिन्हे विद्वानो को प्रयोग द्वारा जानना चाहिए
एवमेतन्मया प्रोक्त किंचित्प्राकृतलक्षणम् ।
शेष देशीप्रसिद्ध च ज्ञेय विप्रा प्रयोगता ।। प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि सक्षिप्त है, किन्तु, महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भारत के समय मे भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अत भरत ने केवल सामान्य नियमो का ही सकेत करना आवश्यक समझा है । इसी १७वे अध्याय के ५६-६३ श्लोको मे भरत ने कुछ देशी