Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्रकृित व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०३
मद्रास
१०. डी० सी० सरकार १९७० सशोधित एव परिवधित सस्करण, बनारस
मोतीलाल बनारसीदास ११ कुनहन राजा १६४६ भूमिका एव रामपाणिपाद
वृत्ति सहित १२ के० वी० त्रिवेदी १६५७ गुजराती अनुवाद सहित नवसारी
(गुजरात) १३ जगन्नाथ शास्त्री १६५६ हिन्दी अनुवाद सहित वाराणसी
प्राकृतप्रकाश मे कुल वारह परिच्छेद है । प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रो मे स्वरविकार एव स्वरपरिवर्तनो का निरूपण है। दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रो मे मध्यवर्ती व्यजनो के लोप का विधान है तथा इसमे यह भी बताया गया है कि शब्दो के असयुक्त व्यजनो के स्थान पर किन विशेष व्यजनो का आदेश होता है। यथा (१) प के स्थान पर व शा५= सावी, (२) न के स्थान पर ण वचन= वअण, (३) श, प के स्थान पर स शब्द = सद्दो, वृषभ-वसहो आदि । तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रो मे सयुक्त व्यजनो के लोप, विकार एव परिवर्तनो का अनुशासन है । अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दो का नियमन चौथे परिच्छेद के ३३ सूतो मे हुआ है। यथा १२वे सून मोविन्दु मे कहा गया है कि अतिम हलन्त म् को अनुस्वार होता है वृक्षम् = वच्छ, भद्रम् = भद्द आदि। पाचवे परिच्छेद के ४७ सूत्रो मे लिग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है । सर्वनाम शब्दो के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय ७० परिच्छेद के ६४ सूत्रो मे वर्णित है । आगे सप्तम परिच्छेद मे तिइन्तविधि तथा अष्टम मे धात्वादेश का वर्णन है । प्राकृत को धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्व का है। नवे परिच्छेद मे अव्ययो के अर्थ एव प्रयोग दिये गये है। यथा णवरः केवले ॥७॥ केवल अथवा एकमात्र के अर्थ मे णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई। इत्यादि
यहा तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवे परिच्छेद के १४ सूत्रो मे पैशाची भाषा का विधान है। १७ सून वाले ग्यारहवे परिच्छेद मे मागधी प्राकृत का तथा वारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रो मे शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है ।
प्राकृतप्रकाश पर एक टीका नारायण विद्याविनोद की भी मानी जाती है, जिसका नाम 'प्राकृतपाद' है। राजेन्द्र लाल मित्र ने सर्व प्रथम इसका परिचय दिया था। प्रारम्भ मे विद्वान् इस टीका को क्रमदीश्वर के 'मक्षिप्तसार' की टीका मानते थे। किन्तु अब 'प्राकृतपाद' वररुचि के अन्य की ही टीका स्वीकार की