Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८१ येनागविकार ' यह पाणिनि सूत्र है। दीक्षित ने इसकी वृत्ति मे लिखा है। "येन विकृतेनागनागिनो विकारो लक्ष्यते तन तृतीया स्यात्" अर्थात् जिस विकृत अग से अगी का विकार परिलक्षित हो, उस अगवाचक शब्द मे तृतीया विभक्ति होती है। यहा अग शब्द से अच् प्रत्यय करके अग शब्द बनाया गया है। जिसका अर्थ होता है 'अगी' । अगम् अस्ति यस्य स..अग अर्थात् अगी" इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा वाञ्छित अर्थ की प्रतीति की जाती है।।, भिक्षुशब्दानुशास। इस प्रकार के क्लिष्ट व्याख्यान मे न उलझकर सीधा सूत्र बनाता है येनागिविकार १।४।६० अर्थ और उदाहरण तो वही है, जो दीक्षित ने दिये है परासूत्रार्य मे वह काठिन्य नही है जो दीक्षित के आगे है। - । । " : . इसी प्रकार "चन्द्रमस्" शब्द बनाने के लिए "चन्द्र मो जित्"। यह सून वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी मे उपलब्ध होता है। इसके द्वारा चन्द्रपूर्वक मा धातु से असि प्रत्यय तथा उसे जित् की प्रतिज्ञा की गई है । जित् के कारण धातु-के आकार का लोप होकर "चन्द्रसस्" शब्द बनता है। इस पन्द्रमस शब्द की सिद्धि भिक्षुशब्दानुशासन मे 'चन्द्र रमस् ।। इस सून से चन्द्र धातुःसे रमस् प्रत्यय करके किया गया है। स्पष्ट है कि भिक्षुशब्दानुशासन मे प्रक्रिया को सरल करने का प्रयत्न जिस प्रकार अन्य प्रकरणो मे किया गया है उसी प्रकार उणादि सूत्रो के सम्बन्ध मे भी यहा का प्रयत्न प्रशसनीय है।।, T-7. THE - भिक्षुशदानुशासन मे पाणिनि की गगा, कात्यायन की कालिन्दी और पताल की सरस्वती का एकत दर्शन होता है। उदाहरण के लिए पाणिनिके सूत्र "शिल्पिनिष्ठन्" ३।१।१४५ को ले, जो शिल्पवाचक शब्दो से वुन् प्रत्यय करता है । इस पर कात्यायन का वातिक है "नृतिखनिजिभ्याएक"111५तजलि का कहना है यह वुन् प्रत्यय "नृतिखनिभ्यामेव" । वुन् प्रत्यय से अनुबन्ध को हटा कर वु को अक करके नर्तक इत्यादिरूपो की सिद्धि-की जाती है। इस प्रक्रिया को लाघवपूर्ण बनाते हुए भिक्षुशब्दानुशासन कहता है ' 'T 11
"नृतिखनिरनिभ्य शिल्पिन्यकट" '। स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया मे वु को अक करने की आवश्यकता नही है। । पाणिनि परम्परा की वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी के हल सन्धि प्रकरण मे ३८ सूत्रों तथा कुछ वातिको के द्वारा जितने कार्य किये गये है, वे स कार्य भिक्षुशब्दानुशासन पर आधारित कालुकौमुदी' के हल्सन्धि प्रकरण मे केवल २.३, सूत्रो से कर लिया गया है। सूत्रो को कम करने की यह प्रक्रिया प्रयोगसिद्धि की सरल प्रणाली पर आधारित है। उदाहरण के लिए : उत्यानम्" प्रयोग को लिया जा सकता है।
-- : '.." :: उद्+ स्थानम्' इस स्थिति मे पाणिनि ने "उद स्थास्तम्भो पूर्वस्य" इस सूत्र द्वारा स्थानम् के सकार के स्थान पर पूर्वसवर्ण करके थकार, का विधान