Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७६
(1) स्वरूप शब्दस्याशब्दसज्ञा ( 11 ) आद्यन्तवदेकस्मिन्
( 111 ) यथासख्यमनुदेश समानाम् ।
२ पाणिनिसम्प्रदाय की अनेक उपयोगी परिभाषाये मूलरूप मे या
रूपान्तरित होकर यहाँ न्याय रूप मे स्वीकृत हैं
(1) सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विधातस्य । ( 11 ) एकदेशविकृतमनन्यवत् ।
( 111 ) उपपदविभक्ते कारकविभक्ति वलीयसी । (IV) अर्धवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् । (v) लक्षणप्रतिपदोक्तयो प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् । ३ कुछ ऐसे न्याय भी यहाँ स्वीकृत है, जो लोक सिद्ध है (1) द्विद्ध सुबद्ध भवति ।
( 11 ) यस्य येनाभिसम्बन्धो दूरस्यस्यापि तेन स । ( 111 ) अपेक्षातोऽधिकार ।
भिक्षुन्यायदर्पण मे कुल १३५ न्याय है । इन न्यायो पर शब्दानुशासन के श्लोककार मुनि चोथमल की वृहद्वृत्ति है, जो बहुत ही उपयोगी है । इस शब्दानुशासन को सर्वाङ्गसम्पन्न बनाने में इन न्यायो का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
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लाघव और सरलता भिक्षुशब्दानुशासन का प्रधान लक्ष्य है | व्याकरण સમ્બન્ધી સારે તો લા સાપોવા વિવેશ્વન રને વાલે ફ્સ શબ્દાનુશાસન ળી નિખી विशेषताये इस प्रकार है
१ पाणिनि शब्दानुशासन लौकिक और वैदिक दोनो प्रकार के शब्दो का अनुशासन करता है । भिक्षुशब्दानुशासन के अनुसार वैदिक शब्दों की सिद्धि तथा तत्सम्बन्धी स्वरविधान की प्रक्रिया मान्य नही थी, अत यह वैदिक शब्दो का अनुशासन नही करता ।
૨પાગિનિ સૂત્રો પર બાધારિત તૈયારળસિદ્ધાન્ત લૌમુવી મે પત્તિયો લી परम्परा, जिसके कारण व्याकरण को कठिन मानने की एक धारा चल पडी, उस परम्परा को यहाँ स्थान नही दिया गया है । इसका उद्देश्य सरल प्रक्रिया द्वारा व्याकरण का ज्ञान कराना है । पक्तियो की शास्त्रार्थी प्रणाली शब्द व्याक्रिया से जिज्ञासु को दूर कर देती है ।
३ पाणिनि व्याकरण एक शेष का विधिवत् विवेचन करता है । जनेन्द्र ने एक शेप को आवश्यक नही समझा । वे लिखते है "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैक शेपानारभ ।' अर्थात् लोक व्यवहार के आधार पर प्रयोगो की अवधारणा के कारण एक शेपविधायक सूत्र आवश्यक नही है । यह बात कहाँ तक उचित है, इस पर गभीर विचार की आवश्यकता है । जैनेन्द्र के परवर्ती शाकटायन ने एक शेप