Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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६० · सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
है । अर्थात् यथा के अर्थ मे कई अव्यय है, जिसमे स्वयं यथा का समास सादृश्यभिन्न अर्थ मे होता है।
हेम ने 'विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यद्ध यर्थाभाव-अव्ययम् ३।११३६ सूत्र से यथा को हटा दिया और 'योग्यता वीप्सार्थान तिवृत्तिसादृश्ये' ३।११४० अलग सूत्र लिखा, इसका तात्पर्य यह है कि इन चारो अर्थों मे किसी अव्यय का समास हो जाता है । यथा अनुरूपं, प्रत्यर्थ, यथाशक्ति, सशीलम् इत्यादि। इसके बाद 'वथा था' ३।११४१ सूत्र द्वारा यथा हरि यथा हर प्रयोगो की सिद्धि भी हेम ने कर ली है । उपयुक्त प्रकरण मे हेम ने अपनी अत्यन्त कुशलता का परिचय दिया है । हेम के अनुसार यथा शब्द दो प्रकार के होते हैं
(अ) प्रथम प्रकार का यथा शब्द यत् २००८ से 'था' प्रत्यय लगाने पर लगता
है।
(ब) द्वितीय प्रकार का यथा २००८ स्वय सिद्ध है। यथा शब्द के इन दो रूपो के अनुसार समासस्थलीय और असमासस्थलीय ये दो भेद हैं। जिस यथा शब्द मे 'या' प्रत्यय नही है, ऐसे यथा शब्द का तो समास होता है जैसे यथारूप चेष्टते, यथासूत्रम् अधीते, किन्तु यहा यथा शब्द 'या' प्रत्ययवाला है, वही समास नही होता है। जैसे - यथा हरिस्तथा हर यहा समास नहीं है। इसी प्रकार यथा चैत्रस्तथा मैत्र में भी समास का अभाव है। _____ इस प्रकार हेम ने अव्ययीभाव समास मे पाणिनि की अपेक्षा मौलिकता और नवीनता दिलाई है । हेम ने यथा शब्द का व्याख्यान कर शब्दानुशासक की दृष्टि से अपनी सूक्ष्म प्रतिभा का परिचय दिया है। समास प्रकरण मेहेम की प्रक्रिया प्रद्धति मे लाघव और सरलता ये दोनो गुण विद्यमान हैं।
हेम का तत्पुरुप प्रकरण 'गतिवकन्यस्तत्पुरुष' ३।१।४२ से आरम्भ होता है । इस सून्न के स्थान पर पाणिनि ने 'कुगतिप्रादयः' २।२।१८ सूत्र लिखा। उनके यहा गति और प्रादि अलग-अलग हैं, किन्तु हेम ने दोनो का समावेश गति मे किया है । हेम की एक सूक्ष्म सूझ यहा यह है कि 'कुमित पुरुषो यस्थ स कुपुरुष 'इस स्थल पर पहुव्रीहि समास न हो इसके लिए उन्होने अन्य पद लिखा है, जिसकी व्याख्या उन्होने स्वय कर दी है। 'गतिकवन्धस्तत्पुरुष' ३।१।४२ सूत्र की लधुवृत्ति मे हेम ने लिखा है 'अन्यो वहुव्रीह्यादिलक्षणहीन' पाणिनी ने भी उक्त स्थल मे अन्य पदार्थ की प्रधानता होने के कारण बहुब्रीहि समास होने मे सन्देह नही किया है।
पाणिनि तन्त्र के प्रादया' गतार्थे प्रथमया' 'अत्यादय क्रान्ताद्यथ द्वितीयया अवादय कुष्टाद्यर्ये तृतीया' आदि पाच वातिको को हेम ने प्रात्यवपरिनिरादयो गतकान्तकुण्टग्लानक्रान्तार्था प्रथमान्तै ३।१।४७ सूत्र मे ही समेट लिया है।
'कुम्भकार' पाणिनि का उपपद समास है जिसका विग्रह 'कुम्भकरोति' और