Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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तुवृण
नित्रु
નિષ્પ
६४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा डपि, डिपि सघात डम्पयते, डिम्पयते, अडडापत, अडी
डिस्पत, डम्पया चक्र, डिम्पया चक्र। बु, डिवुण क्षेप
उबयति, डिबियति, अडडात्रवत्, अडि
डिम्वत्, डावया चकार । मर्दन
तुम्बयति, अतुतुम्वत, तुम्बया चकार । त्सर छद्मगति सरति, अत्सारीत्, तत्सार । नख
नसति, नखेतु, नखतु, अनखत्, अनखीत्,
ननाख, नख्यात् । नर्व गति
नर्वति, अनीत्, ननर्व। सोचन
निन्वति, अनिन्वीत्, निनिन् । सेवन
नेपति, अनेपीत्, निनेप। पिच्च
कुट्टन पिच्चयति, अपिपिच्चत, पिच्चया चकार । नीश वरण
लिनाति, अन्लेपीत्, विलाय । ब्लेकण दर्शन
नष्कयति, अविप्लेकण व्लेष्कयामास । મુડતુ सघात
भुडति, अभुडीत, बुभुडिम । मिथग् मेधा और हिमा मेथति, अमेथीत्, मिमेय, मेयते, अमेथिष्ट,
मिथे। सगम
मेयात, अमेथीत्, मिमेय, मेथते, अमेथिष्ट,
मिथे। वर्फ गति
वर्फति, अवीत, ववर्फ। रोटन
वाघते, अवाधिष्ट, बवाधे। हेड वैष्टन
हेडति, अहेडीत, जिहेड। पाणिनि और हेम के कृदन्त प्रकरण पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इन दोनो वैयाकरणो ने इस प्रकरण को पर्याप्त विस्तार दिया है। दोनो मनुशासको के प्रयोगो मे समता रहने पर यत्र तत्र विशेषताए भी दिखलाई पडती हैं।
पाणिनि ने 'वास्तव्य ' प्रयोग की सिद्धि के लिए कोई अनुशासन ही नही किया है। कात्यायन ने इसकी पूर्ति अवश्य की है, किन्तु उनका अनुशासन प्रकार पूर्ण वैज्ञानिक नही रहा है । उन्होने उक्त प्रयोग की सिद्धि के लिए 'वसेस्तव्यत् कर्तरि णिच्च' वानिक लिखा है, जिसका अभिप्राय है कि वस् धातु के कर्ता अर्थ मे तव्यत् प्रत्यय होता है और वह स्वय णित् भी होता है। णित् करने का लाभ यह है कि णित् करने से आदिम स्वर की वृद्धि भी हो जाती है। हेम ने उक्त प्रयोग की सिद्धि निपातन के द्वारा की है, यद्यपि निपातन की विधि अगतिक गति ही है, किन्तु हेम के यहा यह स्थिति मौलिक बन गई है। पाणिनि ने रुच्य और अव्यय को निपातन के द्वाग ही मिद किया है । हेम ने उक्त प्रयोग हय मे वास्त
मेथग
वाघड