Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११६
भाषाप्रश्न पर विचार करके तत्कालीन जनसाधारण की भाषाओ को सुसंस्कृत रूप प्रदान करने के लिए अपने व्याकरण मे 'सस्कृतप्रक्रम' को लिख सकता था। ग्रन्थ मे दर्शित प्रकरण, विषययोजना, उदाहरणो आदि से न केवल बालकों के लिए ही उपयोगी है किन्तु प्रौढधी विद्वानो के लिए भी मननीय है। ____ ग्रन्थ के अन्त मे लेखक ने कहा है कि यद्यपि अनेक शास्त्रो का अध्ययन कर बडे परिश्रम से संशोधित कर इस बालशिक्षा को बनाया है तथापि सज्जनी द्वारा यह शोधनीय ही है। इस प्रकार ग्रन्थ के दीर्घकालीन प्रचार की शुभकामना भी ग्रन्यकार द्वारा की गई है। सज्जनो के प्रसाद से ही इस ग्रन्थ की रचना बताकर लेखक ने महती उदारता का परिचय दिया है। प्रशस्ति, रचनाकाल, शुभकामनादिविषयक वचन इस प्रकार है
सदोपकार्यात् साध्योऽय लक्षणद्रव्यसग्रह । साष्टिादशशत्यड्कोऽप्यक्षय सन् तदथिनाम् ।।१।।
भुपन्ति मुक्ता जलजन्तवोऽपि स्वायम्भसा तल्ललित न पाम् । ययोपला अप्यमृत श्रवन्ते
तद् वलिगत चन्द्रमस कराणाम् ।।२।। सता प्रसाद स हि यन्मयापि श्रीमालवश्येन कृति कृतयम् साढाकभू-ठकुरक्रूरसिंहपुत्रेण पनिन्तियुतकव (१३३६) ॥३।। बहूनि शास्त्राणि विलोक्य तावद् विनिर्मितेय महतोयमेन । मशोधिता सद्भिरथापि शोध्या सल्लक्षण क्षोदसह सहैव ।। ४ ।।
यविद् धत्ते गगनसरसी राजसप्रचारम्, भे९५चाग्निवरदिनवधू शर्वरी मड्गलानि । तावद् बोध भृति विदधती वाल शिक्षा सदेषा, जीया योगादतिमतिमता वर्धमानाधिकश्री ॥५॥
१४ कातन्तभूषणम्
आचार्य धर्मधोपसूरि ने कातन्त्र व्याकरण के आधार पर इसकी रचना की है। इसका परिणाम २४००० श्लोक है।
(द्र०---जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५) । १५ कातन्त्रवाक्यविरतर
कौशिक वशीय नागरशातीय सर्वदेव के पुत्र पण्डित राम ने इसकी रचना की है। रचना का प्रयोजन मन्दमति वालो को भी सुखपूर्वक वाक्यो की प्रयोगविधि का