Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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१४४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
उसकी वृहद् वृत्ति की रचना सोना मई (अलीगढ, उत्तरप्रदेश) निवासी आयुर्वेदाचार्य आशुकविरत्न पडितश्री रघुनदन शर्मा ने की । पडितजी व्याकरण के पारगामी विद्वान थे। पाणिनीय व्याकरण के अष्टाध्यायी सून्न उनकी स्मृति मे इतने जमे हुए थे कि कभी अनुलोम से, कभी विलोम से, उनका धाराप्रवाह पाठ करते थे। इन सूत्रो के पाठ करने का उनका समय होता था, जब प्रात वे घूमने जाते थे। प्रतिदिन पूर्ण अण्टाध्यायी के सूत्रो का पाठ करना उनका क्रम बन गया था। उनका यह क्रम लवे समय तक चला। मुनिश्री चोयमलजी और आशु कविरत्न प० रघुनन्दनजी- दोनो के सयोग से विशालकाय श्री भिक्षुगदानुशासन व्याकरण तैयार हुआ। यह व्याकरण अपने आप मे पूर्ण है। इसमे शब्दो को अनुशासन करने वाले केवल सूत्र ही नही हैं, उनकी व्याख्याए भी है, लघु और वृहद् वृत्ति भी है । यह व्याकरण धातुपा०, गणपाठ, उणादि, लिङ्गानुशासन, न्याय दर्पण कारिका संग्रह वृत्ति आदि अवयवो से पूर्ण है। यह अभी अप्रकाशित है इसलिए सर्वजन भोग्य न होकर केवल तेरापथ के साधु, साध्वियो के अव्ययन तक ही सीमित है । इसकी प्रक्रिया कालूकीमुदी के नाम से प्रकाशित है। कालूकौमुदी के माध्यम से श्री भिक्षुशब्दानुशासन का परिचय सहज ही मिल जाता है। श्री भिक्षुशब्दानुशासन मे सूत्रो की रचना सरल व स्पष्ट है, उच्चारण की क्लिष्टता नही है। जैसे प्रत्याहार सूत्र अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ह य व र ल न ण न ड म झ ढ घ घ भ ज ड द ग व ख फ छ ठ थ च ट त क प श प स । इस सूत्र मे सधि के अभाव मे उच्चारण की स्पष्टता है।
रचनाकाल
श्री भिक्षुशब्दानुशासन की रचना थली प्रदेश मे छापर (आचार्य कालगणी की जन्मभूमि) मे सपन्न हुई। इस व्याकरण का रचनाकाल विक्रम संवत् १९८० से १९८८ है । वि० स० १९८८ के माघ शुक्ला त्रयोदशी शनिवार को पुष्य नक्षत्र मे यह व्याकरण पूर्ण हुआ। यह उसकी प्रशस्ति से स्पष्ट है वृहद् वृत्तिकार द्वारा कृत प्रशस्ति इस प्रकार है
मामीत् कश्चिद् विपश्चिद् घृतपदकमलो भिक्षुनामा मुनीन्द्रो। य श्री जनादिताना मनुभव विभवै भूरि भावान् विभाव्य । मुग्वानुतु काम सपदि निपतितान् पापि पापण्डि जाले। तेरापन्था मर्य व्यरचयत सता सपद सम्प्रदायम् ।।१।। મારીમાન સ્તવનુમુનિ રાયવન્દ્ર સ્તનભૂત जात. पश्चादऽगणितगुणो जीतमल्लो गणोश ।। स्यान्तेऽमूद् गणपमधवा तत्पदे चोत्तमोऽस्यात् । श्री माणिक्य स्तदनु च मतो डालचन्द्रो मुनीन्द्र ।।२।।