Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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१५४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वनते है उपान्यायी और उपाध्याया।
भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वय अध्यापिका के लिए विशेष विधान नहीं है, इसलिए केवल एक ही रूप उपाध्याया ही बनता है। १३ अरोपमानसहितसहित सह शफ लक्ष्मण दामादे २।८।८५
लक्ष्मणोरु । पाणिनीय मे इस सूत्र में लक्ष्मण शब्द नहीं है इसलिए वहा लक्ष्मणोरु ०८ सिद्ध नहीं होता। १४ कालावभावदेशमकर्म चाकर्मणाम् २।४।१८
__ अकर्म धातु के योग मे काल, अध्व, भाववाची शब्दों के आधार की कर्मसज्ञा विकल्प से होती है, और यकम होता है। मामे आस्त, मास
मस्तेि ये दो रूप बनते हैं। पाणिनीय मे एक ही रूप बनता है मासमास्ते । १५ अविवक्षितकर्मणामनिन् कर्ता नौ वा २।४।२०
जिन्नन्त बनाने से पहले अविवक्षित कर्म का जो कता हो उसका जव जिन्नन्त मे प्रयोग किया जाए तो उस कर्ता की कर्म सज्ञा विकल्प से होती है। जैसे पचति चैत्र । यहा कर्म की विवक्षा नहीं की गई है। जिन्नन्त मे इसका रूप बनेगा पाचयति चैत्र चैत्रेण मंत्र । यही चैत्र कर्ता की कर्म सज्ञा विकल्प से हुई है। पाणिनीय निन्नन्त कर्ता की कर्म संज्ञा विकल्प से नहीं करता, इसलिए वहा एक ही रूप बनेगा पाचयति
चैत्रेण मंत्र । १६. निकषासमयाहाविगतरान्तरेणातियेनतेने २१४१४६
निकषा आदि युक्त नाम मे द्वितीया विभक्ति होती है। पाणिनीय मे येन तेन' शब्द नहीं है, इसलिए उनके वहा 'येन तेन' युक्त नाम मे द्वितीया विभक्ति नही होती। येन तेन वा पश्चिमा गत' ऐसा वाक्य
नही बनता। १७ द्विद्रोणादिभ्यो वीप्साया वा २।४।६२
__वीप्सा के अर्थ मे द्विद्रोण आदि गौण शब्दो से तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है । 'द्विद्रोणेन धान्य क्रीणाति द्विद्रोण द्वि द्रोण क्रीणाति'।
पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। १८ हितसुखाभ्या २१४१७२
हित और सुख के योग मे चतुर्थी और पठी विभक्ति होती है। मैत्राय मैत्रस्य सुरवम् । पाणिनीय मे सुख के योग मे केवल चतुर्थी ही
होती है, 40ठी नही । मैत्राय सुखम्, एक रूप ही बनेगा। १६. भावे वा २।४।१०१
भाव मे क्त प्रत्यय हो तो कर्ता मे ५७ठी और तृतीया विभक्ति होती है । छात्रस्य हसित, छात्रण हसितम् । पाणिनीय मे इस अर्थ मे षष्ठी