Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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दो प्रक्रिया-ग्रन्थ १६७
स्पुसदशोऽने हसश्च से रडा' से 'सि' को डा हुआ और डित्वात् टि का लोप होने से राखा' ऐसा रूप सिद्ध होता है। किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी मे एतदर्थ अनेक सूत्र और युक्तिया काम मे लाई गई हैं। वे निम्नोक्त प्रकार से हैं-सखि सु यहा सूत्र न. २१ अ न ड सौ ७।१।१०३ से सखि शब्द को अनड आदेश होता है । यह आदेश सूत्र न० ७२ डि ०५ ११११५३ के अनुसार अन्त के वर्ण को प्राप्त हुआ। सूत्र न० ५ हलन्त्यम् १।३।३ से ड का लोप तथा गूत्र न०४१ 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' ११३१२ से अकार का लोप सूत्र न० ४२ प्रतिज्ञाअनुनासिक्यापाणिनीया से अनुनासिक मानकर किया जाता है । सखान् सु ऐसा स्थित है। सूत्र न २१२ "अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा" १।१।६५ से अकार की उपधा की सज्ञा की, तथा सूत्र न० २१३ सर्वनामस्थाने चाऽसबुद्धौ ६।४।१ से नकारान्त शब्द की उपधा को दीर्घ किया गया। अब हमारे सामने सखान्-सु ऐसा रूप प्रस्तुत है। सूत्र न० २१४ अपृक्त एकालप्रत्यय १।२।४१ से सकार की अपृक्त संज्ञा, तथा सूत्र न० २१५ 'हल्या भयो दीर्घात् सुतिष्य पृक्त हल से' ६।१।६८ विभक्ति के सकार का लोप किया गया । "सखान्" ऐसा अवशिष्ट रहा। सूत्र न० २१६ “न लो५ प्रातिपदिकान्तस्य" ८।१७ से नकार का लो५ करने पर सखा रूप सिद्ध हुआ। देखने की वात यह कि एक रूप की सिद्धि के लिए कितने सूत्रो का निर्माण किया गया है। प्रारम्भिक सस्कृत विद्यार्थी को काफी कठिनाइयो का सामना करना पडता है। कालुकौमुदी मे इस बात पर पूरा ध्यान रखा गया है । इसके निर्माणकर्ता ने किस प्रकार सरलता से शब्द-सिद्धि का यह लेखा जोखा किया, यह समझने जैसी
बात है।
यहा यह बताना उचित होगा कि इसके रचनाकाल मे पाणिनि हैम, सिद्धान्त कौमुदी, चन्द्रिका, सारस्वत आदि अनेक व्याकरणो का पारायण किया गया था। उनके जिस किसी भी स्थल की सरल पद्धति ध्यान मे आई, उसे यहा स्वीकार किया गया है।
हमने लघुसिद्धान्तकौमुदी, सिद्धान्त चन्द्रिका तथा सारस्वत आदि कई प्रक्रियाए देखी परन्तु कालुकौमुदी जैसी स्पष्ट व सरल कोई भी हमारी दृष्टि मे नही आई। यहे। इतना अवकाश नही कि सबका निचोड यही प्रस्तुत किया जा सके। किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी के अनेक स्थल हमने पढे है। हमे वे स्थल बडे दुरूह से नजर आए। स्यानाभाव के कारण इस लघुकीय निबन्ध मे उन सभी स्थलो को उद्धृत नहीं किया जा सकता है। फिर भी विद्वान् इन दो-एक उदाहरणो से ही वस्तुस्थिति को आक सकग, ऐसा हमार। अनुमान है।
तुलसीप्रभा
आचार्य कालगणी के समय कुछ सतों ने हेमशब्दानुशासन का अध्ययन किया