Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन . १५३
४. ऋणप्रवसनकम्वलदार्णवत्सरवत्सतरस्यार् १।२।२३। पाणिनीय मे
वत्सर शब्द नहीं है। इसलिए उससे 'वत्सराण' इस रूप की सिद्धि नही
होती। ५. प्लुताच्च १।३।२४
पदान्त मे दीर्थस्थानीय प्लुत से परे कार को द्वित्व करता है। आगच्छ भो इन्द्र भूते ३च्छन्नमानय । पाणिनीय मे प्लुतविधि नही है । ६. पाना शसे खया वा १।३।३६
चप को शस परे हो तो खथ विकल्प स होता है।
स्पीर, क्षीरं, अफ्सरा अप्सरा ७ नेमाल्पप्रथमच रमतयडयऽऽधकतिपथानाम् ११४१२०
___इस सूत्र मे पाणिनीय से अयट् का ग्रहण अधिक हुआ है। इसलिए पाणिनीय व्याकरण मे त्रया. यह एक रूप ही बनता है, जबकि इसमे नये
और त्रया ये दो रूप बनते हैं। ८. नुमि वा ११४१६६
यह सूत्र अ५ शब्द की उपधा को विकल्प से दीर्घ करता है। स्वाम्पि, स्वम्पि । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। है जरसो वा २।१२
जरस् अन्तवाले शब्द से नपुसक मे सि और अम् का लो५ विकल्प से होता है। अजर , अजरस कुल-ये रूप बनते हैं । पाणिनीय मे यह
सूत्र नहीं है, इसलिए ये रूप नही बनते। १० मास निशासनस्य शसादी वा लोप. २१११२३
इस सूत्र से आसन शब्द के अत का लोप कर आसन् रूप बनाया जाता है। पाणिनीय मे यह विधान नहीं है। वही आस्य शब्द को आसन्
आदेश किया जाता है। ११. श राज भ्राज् यज् सृज् मृज् भ्रस्न वृश्च परित्राणा ष-२।१।११७
शकारान्त और राज् आदि के चज को प आदेश होता है। लेष्टा, लिड् । आदेश होने वाले शकार को भी ष आदेश करता है प्रष्टा, प्रष्टु । पाणिनीय मे तो तश्च भ्रज ८।२।३६ से छ कार को ष कार का विधान है। इस व्याकारण मे छ्वो शूटी मे च ४१३।३८ से छ कार
को प कार सिद्ध होता है। १२ मातुलाचार्योपाध्यायाद् वा २।३।५६
उपाध्याय का स्त्रीलिंग मे प्रयोग करने पर ई५ के साथ आनुक का आगम विकल्प से होता है, इसलिए दो रूप बनते है उपाध्यायानी, और उपाध्यायी । पाणिनीय मे, जो स्वयं ही अध्यापिका है उसके लिए दो रूप