Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १३१
सदानन्द
प्रतीष्ट्रय्य जगन्नाथ सदानन्देन समुद।। सिद्धान्त चन्द्रिकावृत्ति क्रियते कृत्प्रकाशिका॥
(उत्तरार्ध २३।१)। નિધિનન્દાર્વ મૂવર્ષે સાનન્દ સુધીમુદ્દે सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानृजुम् ।।
(उत्तरार्ध ३१।११६)। वृत्ति के प्रारम्भ मे पुराणपुरु५ अर्हन्तनायक को नमस्कार कर ग्रन्थकार ने वृत्ति रचना की प्रतिज्ञा की है और अपनी गुरु-शिष्यपरम्परा प्रस्तुत की है। उसके अनुसार जगत्पूज्य खरतर आम्नाय मे भट्टारक श्रीजिन भक्तिसूरि हुए, जो अपने निर्मल यश से चन्द्रवत् तथा तेज से सूर्यवत् थे। उनसे यतीन्द्र श्रीकातिरत्नसूरि हुए, उनके शिष्य पाठकप्रवर श्रीसुमतिरड्ग, उनके शिष्य पाठक श्रीसुखलाभ, उनके शिष्यवर्य पाठकवारणेन्द्र श्रीभागचन्द्राणि, उनके शिष्य श्रीभक्तिविनय हुए। इन्ही के विनयप्रधान शिष्य थे सदानन्दगाणि । द्विरुक्तप्रक्रिया एव कृदन्त की समाप्तिपर भी अपने साक्षाद् गुरु भक्तिविनय की विशेषताओ का उल्लेख किया है। ___ ग्रन्थकार ने विषयविवेचन मे किसी पूर्वाचार्य के मत का सामान्यतया खण्डन नही किया है । विरोध उपस्थित होने पर उसे लोकमान्यता या शिष्टसम्मत पक्ष प्रस्तुत करते हुए हेय या उपादेय कहने का प्रयास किया है। कही-कही समन्वयार्य तृतीय मत को भी दिखाया है। जैसे 'अदस्' शब्दोत्तरवर्ती 'सि' प्रत्यय को औकारादेश होने पर 'असो' रूप तथा इसी मे 'अक' प्रत्यय होने पर 'असका असुक 'ये दो रूप निष्पन्न होते है । दकार को मकारादेश करने पर अमुक' रूप भी साधु माना जाता है । परन्तु वृत्तिकार ने पूर्वाचार्यों का अनुसरण कर इसे साधु नही माना है। तथापि अव्युत्पन्न नाम मानकर वृत्ति विषय (समास आदि) मे ही इसका प्रयोग किया जा सकता है इसे भी दिखाया है (द्र०-पूर्धि १०।६६, १७।१०६)।
प्रातिपदिक के १ से ५ तक अर्थ अन्यान्य आचार्यों द्वारा मान्य है स्वार्थ, द्रव्य, लिड्ग, सख्या तथा कारक । ऐसे स्थलो मे वृत्तिकार ने पृथक्-पृथक् आचार्यों के मतविशेष को स्पष्ट किया है। इससे यह सुनिश्चित है कि वृत्तिकार को पाणिनीय व्याकरण के भी मतो का परिज्ञान था (द्र०-पूर्वार्ध १६११)।
प्रसगत अनेक आवश्यक अवशिष्ट अशो की पूति-हेतु विशेष वचन प्रस्तुत किए गए है, जिनमे सिद्धान्तचन्द्रिका का अर्थ सुबोध हो जाता है और इस प्रकार 'सुबोधिनी' टीका की अन्वर्थता भी सिद्ध हो जाती है । यथा परिभाषाप्रकरण मे सूत्रज्ञापित पन्द्रह परिभाषाओ की तथा कर्मसंज्ञा के प्रकरण मे अकथित आदि कर्मसज्ञाविधायक पाणिनीय सूत्रो की व्याख्या करना । इसी प्रकार विभक्तिसज्ञा के प्रसङ्ग मे "इदम इ५ विभक्ती" आदि तीस सूत्रो की भी व्याख्या की है।