Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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१२६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
आदि वचनो से मतान्तरो का सकेत किया है। कुछ ऐसे भी सूत्रो पर यह टीका देखी जाती है, जिन्हे कुछ आचार्य पढते ही नही । वहाँ भी टीकाकार ने मतान्तर का सकेत अवश्य किया है।
२ क्रियाचन्द्रिका
खरतरगच्छीय गुणरत्न ने वि०स० १६४१ मे इसकी रचना की थी। इसकी हस्तलिखित प्रति वीकानेर मे है ।
३ चन्द्रिका
पजाव भण्डारसूची, भाग १ के अनुसार मेघविजय जी ने यह टीका लिखी थी। इसका समय निश्चित नहीं है।
४ दीपिका
विनयसुन्दर के शिष्य मेघरत्न ने वि० म० १५३६ मे इसे बनाया था। इस टीका का नामान्तर मेधीवृत्ति भी है। १७वी शताब्दी मे लिखित ६८ पत्रो की तथा वि० स० १८८६ मे लिखित १६२ पत्रो का हस्तलेख लालभाई दलपतभाई सस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में सुरक्षित है । प्रारम्भिक श्लोक इस प्रकार
नत्वा पाश्व गुरुमपि तथा मेघ रत्नाभिधोऽहम् ।
टीका कुर्व विमलमनस भारतीप्रक्रिया ताम् ।। युधिष्ठिर भीमासक ने इसका नामान्त र ढुण्ढिका बताया है और स० १६१४ के हस्तलेख को प्राप्त होने की सूचना दी है ।
५ धातुतगिणी ___ इसकी रचना नागोरी तपागच्छीय आचार्य हर्षकीति सूरि ने की है। इसमे १८६१ धातुओ के रूप बताए गए हैं। वि० स० १६६६ मे लिखित ७६ पत्नी की प्रति तथा वि० स० १७६५ मे लिखित ५७ पत्नी की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में विद्यमान है। टीकाकार का निर्देश-वचन इस प्रकार है
वातुपाठस्य टीकेय नाना धातुत रङ्गिणी।
प्रक्षालयतु विज्ञानामज्ञानमलमान्तरम् ।। डॉ० वेल्वाल्कर के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना स० १७१७ मे की गई थी।