Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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११६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
पिता से पढा था उसी के स्मरणार्थ इस ग्रन्थ का निवन्धन किया है, अत अपना कोई दोष न बताकर युक्तायुक्त के विचार का भार विद्वानो पर छोड़ दिया है
कात्तिकेय समाराध्य कृत शास्त्रमनाकुलम् । તમૈ નમોડસ્તુ ગુરવે શ્રીમતે શર્વવર્મળે છે धातुपारायणक
व्याकरणनितयवेदिने । શબ્દસરોનસવિલે વિદ્યાવાત્રે નમ વિવે છે उक्त मया यथावोध शङ्कराय सुवोधिने । युक्तायुक्तविचारस्तु कर्तव्य खलु सूरिभि ।। याचितोऽह चुरा तेन प्रतिपन्न मयाऽपि तत् । स्मृत्ययं क्रियते यस्मात् तस्मान्नो नान दूषणम् ॥
पितृभिर्यदुपन्यस्त स्मरणाय कृत मया ।। स० १४६५ मे श्रावणवदी ५ बुधवार को राणा श्रीउदयसिंह विजय के राज्य मे इसे लिखा गया था।
१० कातन्त्रपजिकोयोत.
वर्धमान के शिष्य त्रिविक्रम ने कातन्तपलिका पर उद्योत नामक टीका लिखी है । इसका हस्तलेख सङ्घभण्डार-पाटन मे सगृहीत है। आख्यात के सम्प्रसारणपादपर्यन्त यह उपलब्ध है। इसका लेखनकाल स० १२२१, ज्येष्ठपदी तृतीया, शुक्रवार है। ग्रन्थकार ने कहा है कि कुछ पूर्वभावी आचार्यों ने अपने असारवचनो से पलिका को प्राय निरर्थक बताया था और इसी कारण वह ५जरस्थ शारिका की तरह पराधीन होकर अपने गुणो को प्रकाशित करने मे असमर्थ हो गई थी। मैंने पूर्वाचार्यों के उन आक्षेपवचनो का खण्डन कर इसे पूर्ण उज्ज्वल कर दिया है।
उक्त यदालूनविशीर्णवाक्यनिरगल किजन फल्गु पूर्व । उपेक्षित सर्वमिद मया तत् प्रायो विचार सहते न येन ॥ आसीदिय ५ रचिनसारिकव हि पजिका।
ઉદ્યોતવ્યપરોન મયા પૂગ્વતી9તા इस प्रकार टीकाकार का प्रयास तथा टीका का नाम सार्थक ही कहा जा सकता है।
११ कातन्त्रोत्तरम्
इसकी रचना विजयानन्द ने की है, इसका दूसरा नाम विद्यानन्द भी है। ३६० पत्रो का ५ हस्तलेख अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर मे सुरक्षित है, वीच का कुछ अश इसमे त्रुटित है। ग्रन्यकार