Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११५
८ निमित्त के पर्यायवाची कारक' शब्द को अव्युत्पन्न तया स्वभावत नपुसकलिङ् मानना । क्रिया के निमित्तमान प्रधान या अप्रधान को कारक कहते हैं । व्युत्पन्न तथा प्रत्ययान्त कारकशब्द का अर्थ 'कर्ता' होता है तथा वह वायलिड् माना जाता है । (२।४।२३)।
६ वृत्तिकार दुर्गसिंह द्वारा समादृत चन्द्रगोमी के सूत्र की सूचना देना । "तादयं चतुर्थी" सूत्र को शर्ववर्मकृत न मानकर चन्द्र गोभिकृत माना है। इसकी सूचना देते हुए कहा गया है कि वृत्तिकार ने मतान्तरप्रदर्शन के उद्देश्य से यहा चन्द्रगोमिकृत इस सूत्र को पढा है (२।४।२७)।
इस प्रकार अनेक विशेषताए देखी जाती हैं। दुर्गसिंह कृत वृत्ति तथा टीका के विपयो को प्रौढ स्पष्टीकरण इस व्याख्या मे देखा गया है। इस व्याख्या का स्तर कातन्त्र सप्रदाय मे वही माना जा सकता है जो कि पाणिनीय सम्प्रदाय मे का शिका वृत्ति पर जिनेन्द्रबुद्वि द्वारा प्रणीत कोशिका विवरणपलिका (न्यास) का है। इसमे जयादित्य, जिनेन्द्रबुद्धि प्रभृति लगभग ४० अन्यकारो तथा कुछ ग्रन्यो के मतवचनो को दिखाया गया है। बहुत से मत 'केचित्, अन्ये, इतरे' शब्दो से भी प्रस्तुत किए गए है। इन सभी मतो मे कुछ मतो को युक्तिसगत नही माना गया है।
इस पंजिका मे दशित मतो के प्रति कुछ आचार्यों ने दोष भी दिखाए है, जिन दोपो का समाधान सुपेण विद्याभूषण ने अपने कलापचन्द्र नामक व्याख्यान मे किया है। श्रीनिविक्रम ने उद्योत, मणिकाभट्टाचार्य ने त्रिलोचनचन्द्रिका सीतानाथ सिद्धान्तवागीश ने कुछ अशो पर सजीवनी तया धातुसूत्रीय पञ्जिका पर पीतावर विद्याभूषण ने पनिका नामक व्याख्या की रचना की है।
६ कातन्त्रवृत्तिपजिका प्रदीप
पण्डित श्रीनन्दी के आत्मज पण्डित श्री देसल ने इसकी रचना की थी। २८३ पतो का इसका हस्तलेख जोधपुर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान मे विद्यमान है। पलिका मे जो कुछ विशेष रूप मे कहा गया है उसी का विवरण प्रस्तुत करने की प्रतिज्ञा ग्रन्थारम मे लेखक ने की है। कृदभागीय व्याख्या का प्रारम्भ करने से पूर्व ही ग्रन्थकार के पिता दिवगत हो गए थे, मत पितृवियोगरूपी अनल से दग्धमानस होने पर भी दुखो की कमी की समाप्ति न समझकर श्रीदेसल ने अग्रिम ग्रन्थभाग की पूर्ति की है।
"अत्र चान्तरे दिवगते पितरि तद्वियोगानलदमानसाना कीदृश हि ग्रन्थ दूपण समाधान बुद्विकोशलमुपजायत इति जान द्भिरप्यस्माभि प्रारब्धापरिसमाप्तिदुखमवगम्य यथामति किञ्चिदुच्यते" (कृत प्रकरण का प्रारम्भ)।
ग्रन्थ के अन्त मे ग्रन्थकार ने अपने पिता द्वारा घातुपरायण के रचित होने की भी सूचना दी है। शाड्कर नामक शिष्य की प्रार्थना पर श्रीदेसल ने जैसा अपने