Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०१
(अपरनाम विद्यानन्द) को स्वतन्त्र व्याकरण भी माना जाता है--फिर भी इनमे कातन्त्र के ही अधिकाश सूत्रोको व्याख्या देखी जाती है, अत उन ग्रन्थो का परिचय कातन्त्रव्याकरण की टीकाओ के क्रम मे दिया गया है । जिनरत्नप्रणीत 'सिद्धान्त रत्न' को सारस्वतव्याकरण का रूपान्तर कहा गया है, परन्तु अन्य के अनुपलब्ध होने से यहाँ उसकी चर्चा सारस्वत व्याकरण की टीकाओ के अन्तर्गत की गई है।
पाणिनीय व्याकरण टीकाएँ . पाणिनीय व्याकरण पर चार जैनाचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें से किसी का तो नाममात्र ही शेष है, परन्तु ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। (१) पूज्यपाद देवनन्दी ने शब्दावतारन्यास' नामक टीकाग्रन्थ का प्रणयन किया था। (२)विद्यासागर मुनि ने कोशिकावृत्ति की प्रक्रियामञ्जरी' नामक व्याख्या लिखी थी, जो मद्रास, त्रिवेन्द्रम के हस्तलेख भण्डारी मे ही सुरक्षित है। (३) आचार्य जिनदेवसूरि ने पाणिनीय धातुपा० पर क्रियाकलाप' नामक एक टीका लिखी थी। (४) आचार्य विश्वेश्वर सूरि ने 'व्याकरणसिद्धान्त-सुधानिधि' नामक अष्टाध्यायी क्रम से एक व्याख्या की रचना की है, जो तीन अध्यायो पर ही उपलब्ध होती है। सम्पूर्ण सूत्रो पर यह व्याख्या लिखी गई या नही असन्दिग्धरूप से नही कहा जा सकता। यहाँ सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ का विशेष अध्ययन प्रस्तुत है।
१ व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि
आचार्य विश्वेश्वरसूरि ने अष्टाध्यायीसून क्रम से यह व्याख्या लिखी है। 'सुधानिधि' नाम के अनुसार यह विस्तृत व्याख्या है, जिसमे क्वचित् एक ही विषय के निरूपण मे अनेक मतसम्बन्धी वचन प्रस्तुत किए गए हैं । ग्रन्थ के अन्त मे ग्रन्थकार ने लक्ष्मीधर का परिचय अपने पिता के रूप मे दिया है । अपने पिता से ही इन्होने विद्याध्ययन भी किया था ऐसा प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ प्रारम्भिक ३ अध्यायो पर ही प्राप्त है, जो १६२४ मे विद्याविलास प्रेस से दो भागो मे प्रकाशित हुआ था। इसके द्वितीय भाग मे भण्डारी श्रीमाधवशास्त्री ने ग्रन्थकार का परिचय देते हुए एक किंवदन्ती को भी उद्धृत किया है। जिसके अनुसार श्रीलक्ष्मीधर पाण्डेय अपनी वृद्धावस्था मे अपत्यहीनता के कारण अत्यन्त सन्तप्त थे। दम्पति की तपस्या से भगवान् शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने लक्ष्मीधर को कर दिया कि आप मेरे समान पुत्र प्राप्त करेंगे । सातवे महीने मे ही उत्पन्न होने वाले पालक का नाम विश्वेश्वर रखा गया, क्योकि विश्वेश्वर के प्रसाद से ही इनका जन्म हुआ था।