Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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१०८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
कात्यायन द्वारा रचित कृत्प्रकरण के ५४६ मूत्रो मे यहा केवल ८०६-४६० = ३१९ ही सून व्याख्यात हुए हैं। शेप को कठिनता या विस्तार के भय से अनावश्यक जैसा समझकर छोड दिया गया है। ___ ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ग्रन्थकार ने इसकी रचना का प्रयोजन मन्दधी बालको को कातन्त्रव्याकरण का सरलतया अववोधन कहा है, जिसकी चर्चा उन्होने ग्रन्थ के अन्त मे भी की है
वीर प्रणम्य सर्वज्ञ विनाशेपदोषकम् । कातन्त्र रूपमालेय वालवोधाय कथ्यते ॥११ (ग्रन्थारम्भ)। भावसेनानिविद्येन वादिपर्वतत्रिणा। कृताया रूपमालाया कृदन्त पर्यपूर्यत । मन्दबुद्धिप्रबोधार्थ भावसेनमुनीश्वर । कातन्त्र रूपमालाख्या वृत्ति ०५२ रचत् सुधी ।।
(ग्रन्थान्त) तद्धित प्रकरण की समाप्ति पर भावसेन ने इस व्याकरण के 'कालापक' तथा 'कोमा' नामो की विलक्षण व्याख्या की है। कहा गया है कि जो स्त्रियो मे ६४ तथा पुरुषो मे ७४ कलाएं होती है उन सभी के प्राप्तिकत्ता तीर्थकर ऋषभदेव है, उनसे प्रोक्त होने के कारण इसे 'कालापक' एव कुमारी के प्रति कहे जाने से इसे 'कौमार' नाम से अभिहित किया जाता है। उन्होने इस मान्यता को अयुक्त बताया है कि जो यह कहा जाता है कि स्वामिकात्तिकेय के वाहन मयूर के पुच्छ से सूतो का निर्गमन होने के कारण इस व्याकरण का नाम कालापक है। भावसेन ने इस मान्यता को इसलिए अयुक्त बताया है कि मयूर के निमालिक प्लुत का ही उच्चारण प्रसिद्ध है और कातन्तव्याकरण के वर्णसमाम्नाय मे प्लुतवर्णों का पाठ नहीं किया गया है
चतु पष्टि कला स्त्रीणा ताश्चतु सप्ततिनृणाम् । सापक प्रा५कस्तासा श्रीमानृषभतीर्थकृत् ।। तेन ब्राह्म य कुमार्य च कथित पाहेतवे । कालापक तत् कौमार नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ यद् वदन्त्यधिय केचित् शिखिन स्कन्दवाहिन ॥ पुच्छान्तिर्गतसून स्यात् कालापकमत परम् ।। तन्न युक्त यत केकी वक्ति प्लुतस्वरानुगम् । निमात्र च शिखी ब्रूयादिति प्रामाणिकोक्तित ॥ न पात्र मातृकाम्नाये स्वरेषु प्लुतसग्रह । તસ્માત્ શ્રીપમાવિષ્ટfમયેવ પ્રતિપદ્યતામ્ |
(तद्धितप्रकरण के अन्त मे)