Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचार्यों की टीकाएँ : एक अध्ययन
डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी
संस्कृत व्याकरण शास्त्र पर आचार्यो ने अपनी ज्ञानसाधना से जो अनेक व्याकरण ग्रन्थ लिखे उनमे आठ या नव को अपनी स्वतन्त्र विशेषताओ के कारण संस्कृत वाङ्मय मे प्रमुख स्थान प्राप्त है । इनमे भी कुछ व्याकरण लौकिक-वैदिक उमयविध हैं तथा कुछ केवल लौकिक शब्दो का ही अन्वाख्यान करते है । ८ या प्रमुख व्याकरणो के भी दो मूल स्रोत माने जाते है - माहेश्वर और ऐन्द्र । माहेश्वर व्याकरण को समुद्रवत् तथा ऐन्द्रव्याकरण को उसकी तुलना मे बहुत ही सक्षिप्त बताया गया है फिर भी पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा वह विस्तृत ही था । पाणिनि से पूर्व लगभग ८५ वैयाकरण आचार्यों के नाम प्राप्त होते है । दश आचार्यो के नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी मे भी स्मृत है । पाणिनि से पूर्वभावी व्याकरणो मे केवल कुछ प्रातिशाख्य ही सम्प्रति प्राप्त होते है, जो वैदिक शाखाओ के व्याकरण
है ।
लौकिक-वैदिक उभयविध पाणिनीय व्याकरण शब्दलाघव का प्रातिनिध्य करता है और उसे सर्ववेदपारिपद कहा गया है | पा पाणिनि-परवर्ती कातन्त्र व्याकरण मे अर्थ लाघव को मान्यता दी गई है और वह अनेकत पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा सरल, सुबोध तथा भावप्रकाशक है। इसे मैंने अपने ग्रन्थ "कातन्त्रसूत्राणा पाणिनीयसूत्र सह तुलनात्मकमध्ययनम्" मे प्रत्येक सूत्र की समीक्षा करते हुए लिखा है ( ग्रन्थ अप्रकाशित है ) । अपनी कुछ विशेषताओ के कारण ही वङ्गाल, उडीसा, कश्मीर, राजस्थान एव दक्षिणी प्रदेशो तथा तिब्बत, श्रीलङ्का, कम्बोडिया आदि अन्य देशो मे भी कातन्त्र का पर्याप्त अध्ययन-अध्यापन होता रहा । टीकासम्पत्ति के अतिरिक्त कातन्त्र को आधार मानकर कुछ अन्य व्याकरणों की भी रचना की गई ।
कातन्त्र के अतिरिक्त पाणिनीय परवर्ती लगभग ४० व्याकरणो के नाम