Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८५
बनाने के लिए पाणिनि ने 'य सौ' ७।२।११० से इद के 'द' को 'य' बनाया है, किन्तु हेम ने सीधे 'अयमियम पुस्त्रियो मौ २१११३८ के द्वारा अय और इय रूप सिद्ध किए है । यहा पाणिनि की अपेक्षा हेम की प्रक्रिया सीधी, सरल और हृदयग्राह्य है। हेम की प्रयोगसिद्धि की प्रक्रिया से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये शब्दानुशासन मे सरलता और वैज्ञानिकता को समान रूप से महत्व देते हैं। पाणिनि की प्रक्रिया वैज्ञानिक अवश्य है, पर कही-कही जटिल और वोझिल भी है। हेम अपनी सूक्ष्म प्रतिभा द्वारा प्राय सर्वत्र ही जटिलता के बोझ से मुक्त है।
पाणिनि के त्यद् यद् आदि शब्दो के पुलिंग मे रूप बनाने के लिए 'त्यदादीनाम.' ७।२।१०२ मूत्र द्वारा अकार का विधान किया है. इस प्रक्रिया मे त्यद् आदि से लेकर द्वितक का ही ग्रहण होना चाहिए, इसके लिए भाष्यकार ने द्विपर्यन्तानामेवेष्टि' द्वारा नियमन किया है। हेम ने भाष्यकार के उक्त सिद्धान्त को भिलाते हुए 'अद्वेर २।११४१ के द्वारा उसी वात को स्पष्ट किया है । पाणिनि ने 'अचि श्नुधातुभुवायवोरियुकवडो' ६।४१७७ के द्वारा इ को इयड का विधान किया है । हेम 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुत् स्वरे प्रत्यये' २१११५० के द्वारा इय्, उव् मान का विधान कर एक नया दृष्टिकोण उपस्थित किया है।
पाणिनि ने विदुप शब्द की सिद्धि के लिए, 'वसो सम्प्रसारणम्' ६।४।१३१ सूत्र द्वारा म-प्रसारण किया है तथा धात्व विधान करने पर विदुपः का साधुत्व प्रदर्शित किया है । हेम ने 'क्वसूपमती च' २।१।१०५ सूत्र से विद्व स् के व-स् को उप कर दिया है । वृत्रन बनाने के लिए पाणिनि ने हन् मे हकार के आकार का लोप कर ह. के स्थान पर ध् बनाने के लिए 'हो हन्तेगिन्नेषु' ७।३।५४ सूत्र लिखा है। हेम ने हन् को 'हनो हो घ्न' २।१।११२ के द्वारा सीधे घ्न बना दिया है। हेम का प्रक्रियालाघव शब्दानुशासन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
हेम ने कारक प्रकरण आरम्भ करते ही कारक की परिभापा दी है, जो इनकी अपनी विशेषता है। पाणिनीय अनुशासन मे उनके बाद के आचार्यों ने 'क्रियान्वयित्वम् कारकत्वम्' अथवा 'क्रियाजनकत्व कारकत्वम्' कहकर कारक की परिभाषा बताई है, किन्तु पाणिनि ने स्वय कोई चर्चा नहीं की है। हेम और पाणिनि दोनो ने ही कर्ता की परिभाषा एक समान की है। पाणिनि ने द्वितीयान्त कारक जिसे कर्मकारक कहते हैं, बताने के लिए कभी तो कर्मसज्ञा की है और कभी कर्मप्रवचनीय तथा इन दोनो सज्ञाओ द्वारा द्वितीयान्त पदो की सिद्धि की है। 'कर्मणि द्वितीया' तथा 'कर्मप्रवचनीय युक्ते द्वितीया' सूत्रो द्वारा द्वितीया के विधान के साथ सीधे द्वितीयान्त का भी विधान किया है । हेम ने कर्मकारक बनाते समय सर्वप्रथम कर्म की सामान्य परिभाषा 'कतु व्याप्य कर्म' २।२।३ सूत्र में बताई है, इसके पश्चात् विशेषपद, मन्निधान मे जहा द्वितीयान्त बनाना है, वहा कर्मकार