Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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८६ यकृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा
कत्व का ही विधान है अर्थात कर्म कह देने में द्वितीयान्न ममम लिया जाता है। हेम के अनुसार कर्म स्वत: मिद्र द्वितीयान है, उममे द्वितीया विभक्ति लाने के लिए सामान्यत किसी नियमन की आवश्यकता नहीं है। किन्तु एक बात यहा विशेष उल्लेखनीय है, वह यह है कि जहा पाणिनि ने यह स्वीकार किया है कि द्वितीयान्न बन जाने से ही कर्मकारक नही कहलाया जा सकता, बल्कि उममे कर्म की परिभाषा भी घटित होनी चाहिए, फिर भी द्वितीयान्तमात्र होने के कारण उन रूपो का भी कारक प्रकरण के कर्मभाग में सग्रह कर दिया गया है। बत पाणिनि की दृष्टि मे विभक्ति और कारक पयका वन्तु है। विभक्ति अयं की अपेक्षा रखती है, पर कारक शब्द मापेक्ष है, हेम ने भी किया विशेषणात्' २१२१४१ तथा कालावनोव्याप्ती' २१२१४२ मे इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । हेम का यह प्रकरण पाणिनि के समान ही है।
हेम का 'मान्वघ्याड्वम ' २१२१२१ सूत्र पाणिनि के ११४१४८ के तुल्य तथा 'साधकतम कर गम्' २।२।२४ सूत्र पाणिनि के ११४१४२ के तुल्य हैं । पाणिनि ने 'धुवम पायेादानम्' ११४१२५ सूत्र मे 'धुव' शब्द का प्रयोग किया है, जिसकी व्याख्या परवर्ती आचार्यों ने अवधि अर्य द्वारा की है। हेम इस प्रकार के झमेले मे नही पड़े हैं। इन्होने मीधे 'अपायेऽवधिरपादानम्' २।२।२६ सूत्र लिखा है। पाणिनि के रचित मूय में मन्देह के लिए अवकाश था, जिसका निराकरण टीकाकारो द्वारा हुआ। परन्तु हेम ने सूत्र मे ही अवधि शब्द का पाठ रखकर अर्थ सन्देह की गुजाय नही रखी है। ___ 'सम्बोधने चे' २।३।४७ पाणिनि का सूत्र है पर हम ने 'आभन्ने च' २।२।३२ सूत्रसम्बोवन का विधान करने के लिए लिखा है। ___ पाणिनीय तत्र मे किया विशेषण को कर्म बनाने का कोई भी नियम नहीं है, वाद के वैयाकरणो और नैयायिको ने किया विशेषणाना कर्मत्वम्' का सिद्धान्त स्वीकार किया है । हेम ने 'क्रिया विशेषणात्' २।४१४१ सूत्र मे उक्त सिद्धान्त को अपने तन्त्र मे संगृहीत कर लिया है।
पाणिनि ने 'नम स्वस्तिम्वाहास्ववाऽलवष ड्योगाच' २।३।१६ सूत्र द्वारा अल शब्द के योग मे चतुर्थी का विधान किया है, किन्तु हेम ने शक्त्यर्थ सभी शब्द के योग मे चतुर्थी का नियमन किया है इससे अधिक स्पष्टता आ गई है। पाणिनि के उक्त नियम को व्यावहारिक बनाने के लिए उपयुक्त सूत्र मे अलं शब्द को ५प्तिार्थक मानना पड़ता है। अन्यत्र 'अल महीपाल तव श्रमेण' इत्यादि वाक्य व्यवह त हो जायेंगे । हेम व्याकरण द्वारा सभी वाते स्पष्ट हो जाती हैं, मत किसी भी शक्त्यर्थक या पर्याप्त्यर्थक शब्द के सावुत्व मे कही भी विरोध नही आता है।
पाणिनि ने अपादान कारक की व्यवस्था के लिए 'घुवमपायेऽपादानम्' ११४२५ मूत्र लिखा है, किन्तु इस मूत्र से उक्त कारक की व्यवस्था अधूरी रहती