Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८७
है। अतएव वात्तिककार ने वात्तिक और पाणिनि ने अन्य सूत्र लिखकर इस व्यवस्था को पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। इस प्रकरण मे 'जुगुप्सा विराम-प्रमादार्थानामुपसख्यानम्' (का० वा०), 'भीत्रार्थाना भयहेतु' ११४१२५, 'पराजे रसोढ' ११४१२६, 'वारणार्थानामीप्सित' ११४१२७, 'अन्तर्थों येनादर्शनमिच्छति' ११४४८, 'जनिक प्रकृति ' ११४१३०, "भुव प्रभव १।४।३१, पचमी विभक्ते' २।३।४२ 'यतचा वकालनिर्माण तनपचमी' (का० वा०) स्त्र और वात्तिक लिखे गये है। पर आचार्य हेम ने 'अपायेऽवधि र पादानम्' २।२।१६ इस एक सूत्र मे ही उक्त समस्त नियमो को अन्तभुक्त कर लिया है। ___इस प्रकार हेमचन्द्र ने पाणिनि के उक्त कार्यों का एक ही सूत्र मे अन्तर्भाव कर लिया है । यद्यपि महाभाष्य मे 'धुवमपायेऽपादानम्' १।४।२५ मे हेम की उक्त समस्त बाते पाई जाती हैं, तो भी यह मानना पडेगा कि हेम ने महाभाष्य आदि ग्रन्थो का सम्यक अध्ययन कर मौलिक और सक्षिप्त शैली मे विषय को उपस्थित किया है।
पाणिनीय तन्न मे जातिवाचक शब्दो के बहुवचन का विधान कारक के अन्तर्गत नही है। पाणिनि ने 'जात्याख्यायामेकस्मिन्वहुवचनमन्यतरस्याम्' ११२१५८ सूत्र द्वारा विकल्प से जातिवाचक शब्दो मे एक मे बहुत्व का विधान किया है और अनुशामक सूत्र को तत्पुरुष समास मे स्थान दिया है। पर हेम ने इसी तात्पर्यवाले 'जात्याख्यायाऽनवकोऽमल्यो वहुवत् '२।२।१२१ सूत्र को कारक के अन्तर्गत रखा है। ऐमा मालूम होता है कि हेम ने यह सोचा होगा कि एक वचनान्त या बहुवचनान्त प्रयोगो का नियमन भी कारक प्रकरण के अन्तर्गत आना चाहिए। इसी आधार पर दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के अन्तिम चार सूत्र लिखे गये हैं। हेम के कारक प्रकरण का यह अन्तिम भाग पाणिनि की अपेक्षा विशिष्ट है। उक्त चारो सूत्र एकार्थ होने पर भी बहुवचन विभक्तियो के विधान का समर्थन करते हैं । विभक्ति-विधायक किसी भी तरह के सूत्र को कारक से सम्बद्ध मानना ही पडेगा । अत इन चारो सूत्रो का यद्यपि विभक्ति नियमन के साथ साक्षात् सबध नही है, फिर भी परम्परागत सम्बन्ध तो है ही किन्तु विभक्त्यर्थ के साथ एक. वचन या बहुवचन के नियमन का सीधा सम्बन्ध नहीं है, इसी कारण हेम ने इन्हे कारक प्रकरण के मध्य मे स्थान नहीं दिया । कारक के साथ उक्त विधान का पारस्परिक सम्बन्ध है, यह बात बतलाने के लिए ही इन्होने कारक प्रकरण से दूर कर के उसी के अन्त मे ग्रथित किया है।
पाणिनि की अष्टाध्यायी का स्त्रीप्रत्यय प्रकरण चौथे अध्याय के प्रथम पाद से आरम्भ होकर ७७वें सूत्र तक चलता है। आरम्भ मे सुप् प्रत्ययो का विधान है। इसके पश्चात् तृतीय सून स्त्रियाम्' ४११।३ के अधिकार मे उक्त सभी सूत्रो को मानकर स्त्री प्रत्यय-विधायक सूत्र निश्चित किए गए हैं। प्रत्ययो मे सर्वप्रथम