Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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___६६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
पाणिनि सूत्र ४।३।१०१ की कोशिका मे "पाणिनीयम्," "आपिशलम्" और "काशकृत्स्नम्" उदाहरण आये हैं ।
किटायन तथा व्याकरण शास्त्र का इतिहास
शाकटायन ने अपने पूर्ववर्ती वयाकरणो का अनेक बार उल्लेख किया है। ये उल्लेख कही नाम से तथा कही एक , एके, एकेपाम्, कश्चित्, केनचित्, केषाचित्, अन्य , अन्ये, अन्येपाम्, अपर आदि शब्दो के साथ दिये गये है । डा० विरवे ने इस प्रकार के लगभग २१० सन्दर्भो का जिक्र किया है। कुछ सन्दर्भ ऐसे भी है जहा न तो वैयाकरण का नाम दिया है और न ही 'कश्चित्' आदि कहा है।
आपिशलि का महत्वपूर्ण उल्लेख शाकटायन मूत्र २।४।१८२ के उल्लेख से ज्ञात होता है कि पाणिनि की तरह आपिशलि का व्याकरण भी आ० अध्यायो मे निवद्ध था "अटका आपिशलपाणिनीया"। व्याकरणशास्त्र के इतिहास में इस प्रकार का दूसरा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है जिससे आपिशलि के व्याकरण के सम्बन्ध मे इतनी निश्चित सूचना प्राप्त हो । इससे ज्ञात होता है कि व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अष्टाध्यायी व्याकरण रचने वाले अकेले पाणिनि नही है। उनके पहले आपिशलि ने भी अष्टाध्यायी व्याकरण की रचना की थी। पाणिनि ने अपने व्याकरण को अण्टाध्यायी वनाने का सूव मी से ग्रहण किया होगा।
डा० पेलवलकर ने लिखा है कि शाकटायन ने शब्दानुशासन और अमोघवृत्ति के अतिरिक्त निम्नलिखित प्रकरणो की भी रचना की थी
१ परिमापासून २ गणपा० (१६ पाद) ૨ ધાતુપાઈ ४ उणादिसून (४५ाद)
५ लिंगानुशासन (१७ आर्या छन्द) वास्तव में इनमें से लिंगानुशासन तया गणपाठ अमोघवृत्ति मे शामिल है । लिंगानुशासन अलग से भी प्राप्त है । इसलिए इमे स्वतन्त्र मानना भी उचित लगता है। ___गणपा० कु० पाण्डुलिपियो मे स्वतन्त्र रूप से प्राप्त होता है । इस बात मे नन्देह नही कि यह अमोचवृत्ति से ही मकलित किया गया है । यद्यपि अमोघवृत्ति मे गणपाल लिंगानुशासन की तरह स्वतन्त्र उपलब्ध नहीं है फिर भी उन उन सूत्रो की वृनि में निबद्ध है।
गाकटायन ने गणो काम्पाट विभाजन इस प्रकार बताया है -