Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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७४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और काया की परम्परा
एक उदाहरण देकर उक्त कथन का स्पप्टीकरण किया जाता है। पाणिनि ने 'पारमध्येपप्ठ्यावा' २।१।१८, पूज्यपाद ने 'पारे मध्ये तथा वा' १।३।१५, और शाकटायन ने पार मध्येऽन्त पठ्या वा' २।१।६ सूत्र लिखा है। हेम ने उक्त सूत्र के स्थान पर पारेमध्येऽग्रेऽन्त पठ्या वा' सूत्र लिखा है। उपर्युक्त प्रसिद्ध वैयाकरणो के सूत्र की हेम सूत्र के साथ तुलना करने पर अवगत होता है कि हेम ने शाकटायन का सर्वाधिक अनुकरण किया है।
१५ शाकटायन के 'ननृपूजार्यध्वजचित्रे' ३।३।३४ का अमोघवृत्ति सहित हेम ने 'न न पूजार्यध्वजचित्रे' ७।१।१०६ में शब्दश अनुकरण किया है। यद्यपि हेम ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से बहुत कुछ लिया है, तो भी अपनी मौलिकता प्रतिभा द्वारा शब्दानुशासन में अनेक नवीनताए लाने का उनका प्रयास प्रशस्य
१६ हेमशब्दानुशासन का अष्टम अध्याय प्राकृत भाषा का अनुशासन करता है। इसमें चार पाद और कुल १११६ सूत्र है। प्रथम पाद मे स्वर और व्यजन विकार, द्वितीय मे सयुक्त, व्यजन विकार, तृतीय मे सर्वनाम, कारक, कृदन्त एव चतुर्य पाद में धात्वादेश, शौरसेनी, मागधी, पंशाची, चूलिका पैशाची तया अपभ्र श का अनुशासन वणित है। प्राकृत भाषा की जानकारी के लिए इससे वडा और मांगपूर्ण व्याकरण अन्य कोई नहीं है। पाणिनि ने जिस प्रकार संस्कृत और लौकिक संस्कृत भाषा का अनुशासन किया, उसी प्रकार हम ने लौकिक संस्कृत तथा उसकी निकटवर्ती प्राकृत का नियमन उपस्थित किया । भाषा के तत्वो की जानकारी हेम की अद्भुत है। हेम शब्दानुशासन इतना पूर्ण है कि इस व्याकरण के अकले अध्ययन मे ही लोक प्रचलित सभी पुरातन भारतीय भाषाओ की ययेष्ट जानकारी हो सकती है । यह गुजरात का व्याकरण कहलाता है।
हेमशब्दानुशासन पर अनेक टीका अन्य उपलब्ध है। उनका परिचय जन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ५ मे दिया गया है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पट हो जाता है कि जैन व्याकरण शास्त्र की इस मुनित्रयो ने सस्कृत व्याकरण शास्त्र के संरक्षण, संवर्द्धन एवं प्रसार मे जो योगदान दिया, वह व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अद्वितीय है। व्याकरणशास्त्र पर होने वाले भविष्य के अनुसंधान कार्यो मे इन उपलब्धियों का उपयोग किया जाना चाहिए। और अधिक विस्तार के भय से अन्य ग्रन्थो, टीकाओ आदि ५२ इस निबन्ध मे विचार नहीं किया जा सका।
जिस प्रकार देवनन्दी, शाकटायन और हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के कृतित्व को अपनी कृतियो मे समाहित करके उसे सरक्षित किया और उनकी उपलब्धियों को सम्बादत करके प्रसारित किया उसी प्रकार प्रस्तुत निबन्ध मे हमने