Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४३
व्याकरण रचने का उपक्रम नही किया। इसी प्रकार भगवान् पतजलि का महाभाष्य भी पाणिनीय व्याकरण की सीमा के भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था। पाणिनि लगभग पाचवी शती विक्रम पूर्व मे नन्द राजाओ के समय मे हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्य पर आश्रित जान पडती है जैसाकि हमने अपने पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थ मे प्रदशित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनि के वाद लगभग एक सहस्र वर्ष तक नूतन व्याकरण की रचना का प्रयन नहीं किया
गया।
भारतीय साहित्यिक इतिहास का यह सुविदित तथ्य है कि कुषाण काल के लगभग सस्कृत भाषा को पुन सार्वजनिक रूप मे साहित्यिक भाषा और राजभाषा का पद प्राप्त हुआ। कनिष्क के समय मे अश्वघोष के काव्यो की रचना और रुद्रदामा के जूनागढ लेख से यह स्पष्ट विदित होता है । वस्तुत: इस समय भाषा के क्षेत्र मे जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठीक स्वरूप कुछ इस प्रकार था ब्राह्मण साहित्य मे तो संस्कृत भाषा की परम्परा सदा से अक्षुण्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त वौद्ध और जैन आचार्यों ने भी सस्कृत भाषा को उन्मुक्त भाव से अपना लिया और उसके अध्ययन से दोनो ने अपने क्षेत्र मे विपुल साहित्य का निर्माण किया जिसमे किसी समय सहस्रो ग्रन्थ थे । कुपाण काल से जो भाषा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ था वह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहां तक कि लगभग चौथी-पाचवी शती ईस्वी मे संस्कृत भाष) को न केवल भारत वर्ष मे अखण्ड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वरच मध्य एशिया से लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तक के देशो मे पारस्परिक व्यवहार के लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई।
इस पृष्ठभूमि मे शब्दविद्या का पुन वह छूटा हुआ सूत्र आरम्भ हुआ और नए વ્યાવળશાસ્ત્ર નિલે નાને ના સ્વય પાણિનીય વ્યવરો પર વામન બહિત્ય कृत काशिका वृत्ति और जिनेन्द्र बुद्धि कृत न्यास की रचना हुई। यह टीका के मार्ग से प्राचीन व्याकरण का ही विशदीकरण था, किन्तु बौद्ध और जैन दो बडे समुदाय सस्कृत भाषा की नयी शक्ति से परिचित हो रहे थे, उन्होने अपने अपने क्षेत्र मे दो नये व्यकिरणो का निर्माण किया । वौद्धो मे आचार्य चन्द्र गोमी कृत चान्द्र व्याकरण और जनो मे आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कृत जनेन्द्र व्याकरण गुप्त युग मे अस्तित्व मे आए। ज्ञात होता है कि दोनो की ही रचना लगभग ५वी शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध मे हुई। चान्द्र व्याकरण की स्वीपज्ञ वृत्ति मे 'अजयद् जता हूणान्' (१।२।८१) उदाहरण से सिद्ध है कि पाचवी शती के मध्य मे स्कन्दगुप्त ने हूणो पर जो बडी विजय प्राप्त की थी उसकी समकालीन स्मृति इस उदाहरण मे अवशिष्ट है । इससे चान्द्र व्याकरण के रचनाकाल पर प्रकाश पडता है। पूज्य पाद देवनन्दी ने दो सूत्रो मे प्रसिद्ध आचार्य, सिद्धसेन (वेत्ते सिद्धसेनस्य, ५।१७) और