Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन
६१ जैसे अनुदात्त, उदात्त, कर्मप्रवचनीय, प्रातिपदिक, षष सहिता, सत्, सम्बन्धी और स्वरित् ।
५ शाकटायन मे नो प्रकार के भूतो का कयन किया गया है १ सज्ञा, २ नियम, ३ निषेध, ४ अधिकार, ५ नित्यापवाद, ६ विधि, ७ परिभाषा, ८ अतिदेश और विकल्प |
सज्ञा नियम निषेधाधिकारनित्यापवादविधिपरिभाषाः । अतिदेशविकल्पाविति गतयशब्दानुशासने सूत्राणाम् ॥
६ शाकटायन पंचाग है । सूत्रपाठ, गणपीठ, धातुपाठ, लिंगानुशासन और उणादि ये पचाग हैं | इसमे पाणिनीय या जैनेन्द्र के समान वार्तिक, उपाख्यान अथवा अन्य नियम-वाक्यो की आवश्यकता नही है ।
कुल
७ शाकटायन मे सामान्य सज्ञाए बहुत कम है । स्वर्ण सज्ञा के मात्र दो सूत्र हैं । (१) इत्सा विधायक (२) स्वर सज्ञा विधायक | पूरे सज्ञा प्रकरण मे छह सूत्र हैं । अन्य किसी भी व्याकरण मे इतने कम सूत्रो से सज्ञाओ का काम नही चलाया गया । सरलता और आशुवोधता की दृष्टि से इस सज्ञा प्रकरण का अधिक महत्व है।
प्रत्याहार सूत्र शाकटायन में तेरह प्रत्याहार सूत्रो का निरूपण किया गया । ये प्रत्याहार सुन्न न तो पाणिनि जैसे है और न इनका क्रम जैनेन्द्र से मिलता है । शाकटायन ने इन दोनो मे ही सगोधन और परिवर्तन किया है । शाकटायन के प्रत्याहार सून इस प्रकार हैं-- (१) अइउण्, (२) ऋक्, (३) एओड्, (४) ऐ ओच्, (५) हयवरल, (६) मङ्गणनम्, (७) जबगडदश् ( ८ ) झभघढवष्, (६) खफछठथट्, ( (१०) चटतव्, (११) कपय्, (१२) शषस अ अ क पर, (१३) हल् ।
स्पष्ट है कि शाकटायन ने इन सूत्रो मे न तो पाणिनि का अनुसरण किया है और न ही जैनेन्द्र का । शाकटायन ने लृकार को स्वर नही माना । इसी प्रकार अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय की गणना व्यजनो के अन्तर्गत कर ली है। पाणिनि ने अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय को विकृत व्यजन माना है | वास्तव मे अनुस्वार मकार या नकार जन्य है । विसर्ग कही से और कही रेफ से स्वत उत्पन्न होता है । जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय दोनो क्रमश क, ख तथा प फ के पूर्व विसर्ग के ही विकृत रूप है । पाणिनि ने इन सभी को अपने प्रत्याहार सूत्रो मे कोई स्वतन्त्र स्थान नही दिया । बाद के पाणिनीय व्याकरणो मे से कात्यायन ने उक्त चारो को स्वर, व्यजन दोनो मे ही परिगणित करने का निर्देश दिया है । शाकटायन ने अनुस्वार, विसर्ग आदि के मूल रूपो को ध्यान मे रख कर ही उन्हे प्रत्याहार सुत्रो मे स्थान दिया तथा उन्हें व्यजन
सकार
माना ।