Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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४६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण मो. कोण को पर योग्य है । यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्रामृत से तात्पर्य महाकमप्रति प्राभूतन था जिसके रचयिता आ० पुप्पदन्त तथा मृतवलि माने जान है (प्रथम-द्वितीय शती)। इसी का दूसरा नाम पदनाम प्रसिद्ध है। मी या भागविनय बन्ध' या महावन्ध (महावन मिहानमात्र) था जिम के अध्ययन में यह अयनन्दी का तात्पर्य जात होता है, अर्थात् समय भी विद्वानों में प्रामन या पदनाम मे पृथक् महावन्य का अस्तित्व या और दोनो का अध्ययन जीवन का आधा माना जाता था। 'सटीकमधीने में जिन टीका का है वह यवलाटी। नहीं हो सकती क्योकि उसकी रचना दीरसेन ने ८१६६० में की थी। श्रुतावतार के अनुसार महाकर्मप्रामृत ५९ आचार्य कुन्दपुर ने भी 10 बडी प्रात टीका निजी ची जो इस समय अनुपलब्ध है । सम्भवत वही टीका प्रामृत और बन्धक माय पटी जाती थी। उनके स्थान पर पाणिनि सूचक उदाहरणो मे किली समय प्टि, पशुबन्छ, अग्नि, रह-4 नाम आतपय बाल के तत्तद् काण्डो ५.। अध्ययन विद्या । माश माना जाता था। देवनन्दी ने सूत्र ११४१३४ मे जिन श्रीक चायका sex किया है उन्हें कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते है, परन्नु भयनन्दी की महावृत्ति से भूचित होता है कि श्रीदत्त को अत्यन्त प्रसिद्ध या थे जिनका लोक मे प्रमाण माना जाता है। 'इतिथीदनम्,' यह प्रयो। तिपाणिनि' के ना लोकाप्रनिह था । इसी प्रकार तच्छीदतम्' 'अहोश्रीदत्तम् प्रयोग भी बीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते है (श्रीदत्तादो लोक प्रकाशत, महावृत्ति ११३१५) । मूत्र ३।३१७६ ५२ तेन प्रोक्तम्' के उदाहरण मे अभयनन्दी ने श्रीदत्त के विरचित अन्य को श्रीदत्तीयम् कहा है। इससे ज्ञात होता है कि श्रीदत्त का बनाया कोई अन्य अवश्य था। ११४१४ को वृत्ति मे १९८ मयुरा रमणीया, माम कल्याण काची' ये दोनो उदाहरण अभयनन्दी की मौलिकता भूचित करते है । पाणिनि मूत्र 'कालावनात्यन्तसयोग' (२।३।५) वी काशिका वृत्ति में मास कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'माम कल्याणी कात्री' यह ऐतिहामिक सूचना अभयनन्दी ने किसी विशेष त्रोत से प्राप्त की थी। जिस कात्रीपुरी के मासव्यापी उत्सवो कोविणे शोभा की ओर इस उदाहरण मे सकेत है वह महेन्द्रवर्मन्, नरसिंह वर्मन् आदि पल्लव नरेशो की राजधानी के सम्बन्ध मे होना चाहिए । अतएव सप्तम ती से पूर्व यह उदाहरण भाषा मे उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४।३।११४ को वृत्ति मे अभयनन्दी ने माध के पटाछटामिन धनेन विनता ' लोक का वरण दिया है । माघ के दान सुप्रभदेव वर्मलात के मत्री थे जिसका एक शिलालेख ६२१ ई० का पाया जाता है। अतएव माव का समय सप्तम शती का उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही समयनन्दी ने महावृत्ति का निर्माण निया होगा। मुत्र ११४।६६ पर 'चन्द्र गुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिका मे जो 'पुष्पमिनसभा' दूसरा उदाहरण