Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५३
२ "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भ ||१|१||| इस सूत्र द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि शब्द स्वभाव से ही एक शेष की अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व, और बहुत्व मे प्रवृत्त होते है । अत एकशेष मानना निरर्थक है । इसी कारण जैनेन्द्र व्याकरण अनेक शेष है । पूज्यपाद की मान्यता है कि लोक व्यवहार मे जो चीज सर्वत्र प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करने से शास्त्र का निरर्थक कलेवर वढता है ।
पाणिनि ने 'रामा' जैसे बहुवचन के प्रयोगो की सिद्धि के प्रसग मे अनेक के स्थान पर एकशेप करने के लिए "सरूपाणामेकशेष " सूत्र की रचना की है । जैनेन्द्र ने इसे निरर्थक माना है |
३. जैनेन्द्र का सज्ञा प्रकरण बहुत ही मौलिक और साकेतिक है। इसमे धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्य महा-सज्ञाओ के लिए बीजगणित जैसी अति सक्षिप्त और पूर्ण सज्ञाए दी गई है । पाणिनि की तुलना में ये सज्ञाए अति सक्षिप्त हैं । दोनो की तुलना करके देखने पर इसका स्पष्ट ज्ञान होता
है
पाणिनि को सज्ञाएं
१ अर्द्धधातुकम् ३ द्वितीया विभक्ति
५ उपधा
७
वृद्धि
૨ સવ્રુદ્ધિ
११ सज्ञा
१३ अगम्
१५ लघु १७ भावकर्म
१६. अव्ययम् २१ पष्ठी विभक्ति
२३. प्रत्यय
२५. आत्मनेपदम्
२७ दीर्घम्
२६ उत्तरपदम्
३१ अकर्मकम्
३३ निपात
जैनेन्द्र की पाणिनि की
सज्ञाए
संज्ञाएं
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ता
त्य
१०. लोप
खु १२ उपसर्ग
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दी
द्यु
२ चतुर्थी विभक्ति
४ सप्तमी विभक्ति
धि
नि
६ ५लु
पचमी विभक्ति
१४ अगम्
१६ अनुनासिकम्
१८ अभ्यास
२० कर्मव्यतिहार
२२ गति
२४ अभ्यस्तम्
२६ प्रगृह्यम्
२८ वृद्धस्
३०. सर्वनाम स्थानम्
३२. धातु
३४ नपुंसक लिंगम्
जैनेन्द्र की
संज्ञाएं
अप्
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दु
धम्
धु
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