Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
की पद्धति का जिस शास्त्र में आरम्भ और विकास हुआ उसे शब्दविद्या या व्याकरणशास्त्र कहा गया है ।
मस्कृत साहित्य मे पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्र का सर्वागपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहस्र सूत्रो मे लौकिक और वैदिक संस्कृत का जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है । पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण का जो स्वरूप स्थिर किया उसी का विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदि के रूप मे लगभग इस शती तक होता आया है । किन्तु पाणिनि के अतिरिक्त, पर मुख्यत उन्ही की निर्धारित पद्धति से और भी व्याकरण-ग्रन्थो का निर्माण हुआ । इस विषय मे एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है इन्द्रश्चन्द्र काशकृत्स्नापिशली शाकटायन पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टी च शाब्दिका ॥
यह श्लोक मुग्धबोध के कर्ता प० वोपदेव का कहा जाता है । इस सूची मे वैयाकरणो की दो कोटिया स्पष्ट दिखाई पडती हैं। पहली कोटि मे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि, काशकृत्स्न और पाणिनि, ये पाच प्राचीन वैयाकरण थे । दूसरी कोटि मे अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिको की गणना है । पाणिનીય सूत्र 'तू क्या दिसूनान्ताट्ठक्' (४/२/६०) के एक वार्तिक पर काशिका मे 'पचव्याकरण' यह उदाहरण पाया जाता है, इसका अर्थ या पाच व्याकरणो का અધ્યયન રને વાલા ચા ખાનને વાલા વિજ્ઞાન્ । (તવથીતે તદેવ) । સમે નિન પાત્ર व्याकरणो का एक साथ उल्लेख है, वे यही पाच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए, जिनकी सूची मुग्धबोध के इस श्लोक मे है । इस पर सूक्ष्म विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनि से पूर्वकाल मे व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन व्यापक रूप से हो रहा था, जैसाकि पाणिनीय व्याकरण के इतिहास से ज्ञात होता है । प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायी मे लगभग ६४ आचार्यों के नाम आये हैं जिन्होंने शब्दशास्त्र के सम्बन्ध मे उस प्राचीनकाल मे ऊहापोह किया था। इनमे से शाकटायन, अपिशलि और काशकृत्स्न के व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु पाणिति से पहले वे अवश्य विद्यमान थे। ज्ञात होता है कि उन प्राचीन व्याकरणो की अधिकाश सामग्री के आवार पर एव स्वत अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा लोक से शब्द सामग्री का संग्रह करके पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी का નિર્માપ વિયા । વહેંગારૢ નો મેં ઇતના મહાન્ ઔર સુવિતિ સમલા ગય) (પર્ણાગनीय मह्त् मुविहितम्, भाप्य श३२६६ ) कि पाणिनि के उत्तरकाल मे नये व्याकरणो का रचना-त्रम एक प्रकार से वन्द मा हो गया । उसके बाद व्याकरण का परिष्कार केवल वार्तिक, भाग्य और वृत्तियो द्वारा चलता रहा । कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिगोली आचार्य ने पाणिनि व्याकरण पर लगभग सवा चार सहस्र वार्तिको की रचना र उस महान् शान्त्र के प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र
इन्द्र,