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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी
डॉ० श्रीमती मुनीपुष्पा जैन 'सिंघई'
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के स्वच्छ और विद्याराधना हेतु पावन परिसर में मुझे भी सन् १९७४-७६ तक रहने का सौभाग्य तब मिला जब मेरे पति डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' यहाँ रहकर शोधकार्य कर रहे थे । अतः इस संस्थान के प्रति लगभग दो दशकों से अधिक समय से गहरा लगाव है। जब से (१९७९) इसके निदेशक के रूप में आदरणीय डॉ० सागरमल जी ने इस पद को गौरवान्वित किया तब से संस्थान की चहुँमुखी प्रगति में मानो पंख लग गये। पूरे देश की जैन समाज और पूज्य साधुओं के मन में आदरणीय डॉ० सा. के बहुमुखी व्यक्तित्व और कृतित्व तथा इनके सरल-सहज स्वभाव और विद्वत्ता की अमिट छाप पड़ी जिसके फलस्वरूप संस्थान की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ती रही । आपके समन्वयात्मक आलेखों से मैं काफी प्रभावित रही। इन आलेखों के प्रभाव से जैन-जैनेतर समाज वै विद्वानों में जैनधर्म दर्शन की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि हुई डॉ० सा० के अथक प्रयास से जब संस्थान को डीम्ड युनिवर्सिटी का रूप देने हेतु कार्य योजना बनी तब मुझे भी आदरणीय डॉ० सा० ने पुस्तकालयाध्यक्षा के रूप में कार्य करने का सुअवसर प्रदान किया और यहाँ संरक्षित हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में से कुछ महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियों के सम्पादन कार्य करने हेतु कहा तो पहले तो कुछ कठिनाई महसूस हुई, किन्तु इनके अच्छे मार्गदर्शन ने मुझे सदा प्रोत्साहित किया तथा आपके कुशल निर्देशन से मात्र छह माह की कार्यावधि में मैंने जैनधर्म से संबंधित छोटी-बड़ी बारह पाण्डुलिपियों का सम्पादन किया तो जैनधर्म-संस्कृति और साहित्य के इस अपार ज्ञान से भी परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त किया जिससे अब तक वंचित थी। संस्कृत, प्राकृत, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती भाषाओं की पाण्डुलिपियों पर कार्य करने से डॉ० सा० से इन भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया चूंकि कार्य करते समय जब भी कठिनाई हुई तो आदरणीय डॉ० सा० से पूछते तब एक प्रश्न के प्रसंग से अनेक प्रश्नों का समाधान सहज ही मिल जाता तो ऐसा लगता कि ये तो अनेक विषयों के एक चलते-फिरते विश्वकोश हैं। आदरणीय डॉ० सा० के अभिनन्दन के अवसर पर इस बात का उल्लेख करने का मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि जब मेरे ज्येष्ठ पुत्र अनेकान्त कुमार ने टोडरमल स्मारक, जयपुर तथा जैन विश्व भारती लाडनूं में जैनविद्या के अध्ययन हेतु प्रवेश लिया और तब कुछ हमारे शुभेच्छुओं ने ऐसा न करने देने की सलाह दी, किन्तु आदरणीय डॉ० सा० ने हमें और हमारे पुत्र को इसी क्षेत्र में गहराई से अध्ययन करते रहने हेतु सदा प्रोत्साहित और आशान्वित किया।
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आपकी जीवन संगिनी एवं मेरी पूजनीया वात्सल्यमूर्ति आंटी जी को मैं कैसे भूल सकती हूँ। उनका सरल सौम्य स्वभाव तथा ममतामयी मुखमुद्रा सदा स्मृति में रहती है, उनका स्नेहाशीष मेरे लिए अमूल्य निधि है ।
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मैं धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, समाज और इस संस्थान की सच्चे मन से सेवा करने वाले तथा इनके विकास हेतु सदा प्रयत्न शील रहने वाले महान व्यक्तित्व का एवं इस व्यक्तित्व की निर्माण की सतत् सहयोगी आदरणीया आंटी जी का हार्दिक अभिनन्दन करती हुई जिनेन्द्र देव से इनके स्वस्थ सुखी दीर्घायु जीवन की हार्दिक कामना करती हूँ ।
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尽
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