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इतिहासकार 'प्रेमीजी'
श्री० गो० खुशाल जैन एम० ए० __ पाश्चात्य विद्वानों का यह आरोप था कि भारतीय विद्वानो में ऐतिहासिक चेतना नही थी। प्रत उनकी कृतियो के आधार पर किसी वश, परम्परा, स्थान आदि का इतिहास तयार नही किया जा सकता। इतना ही नहीं, उन लेखको के प्रामाणिक जीवन-चरित भी उनकी रचनाओं के आधार पर नही लिखे जा सकते । लेकिन विदेशी तथा भारतीय पुरातत्त्व-विशारदी की सतत् साधना से उद्भूत गम्भीर और सूक्ष्म शोधो ने उक्त कथन की निस्सारता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपितु प्राचीन भारत का सर्वाङ्ग सुन्दर राजनैतिक एव सास्कृतिक इतिहास भी प्रस्तुत कर दिया है। भारत की प्राचीन संस्कृतियो में से अन्यतम जैन-सस्कृति के ऐतिहासिक अनुशीलन के लिए जिन विद्वानो ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, उनमें प्रेमीजी का ऊंचा स्थान है।
प्रेमीजी के साहित्यिक जीवन का सूत्रपात कुछ आगे-पीछे 'जनहितपी' के सम्पादकत्व, 'माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला' के मन्त्रित्व और "हिन्दी-ग्रन्य-रलाकर कार्यालय' के स्वामित्व के अनुमग से हुआ है। उनकी चिन्ता मौलिक, तलस्पी और उदार है। अतएव वे 'जनहितपी' में उस समय की प्रथा के अनुसार चालू वस्तु देकर ही अपने सम्पादकीय दायित्व की इतिश्री नही कर सके। इस युग का प्रधान लक्षण युक्तिवाद उन्हें प्रत्येक परिणाम और मान्यता की गहराई में प्रवेश करने की प्रेरणा करता था। उन्होने जबलपुर में हुए सातवें हिन्दी साहित्य-सम्मेलन मे 'जैन-हिन्दी-साहित्य" शीर्षक निवन्ध पढा था। यह निवन्ध उनकी शोधक वृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इमसे स्पष्ट है कि प्रेमीजी ने प्रारम्भ से ही अपने दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तया कालक्रमानुगत बनाने के लिए अथक परिश्रम किया तया इस दिशा में लेखनी चलाने के पहले विविध शास्त्र-भडारो में बैठ कर बहुमूल्य सामग्री सकलित की। 'माणिकचन्द्र-ग्रन्य-माला' के सचालन ने उनकी जिज्ञामा को और भी प्रखर कर दिया था। हस्त-लिखित ग्रन्यों को केवल छपवा कर निकाल देने में ही प्रेमीजी को कोई रस न था, गोकि जनसमाज में प्रकाशन की यह पद्धति पहले थी ही नहीं, आज जो है। उनकी जागरूक चेतना उन प्राचार्यों के स्थान, पूर्वज, गुरु, काल, सहकर्मी, प्रशसक तथा रचनाओ को जानने के लिए व्याकुल हो उठी, जिनके प्रत्येक वचन में ससार की उलझी गुत्थियो को सुलझाने के उपाय है। इस मानसिक भूख को शान्त करने के लिए जब प्रेमीजी ने पुरातत्त्व की ओर दृष्टि फेरी होगी तो विविध साहित्य से परिपूर्ण नाना शास्त्र-भडारो, देवालयो, मूर्तियो, शिलालेखो, ताम्रपत्रो, पट्टावलियो, लोकोक्तियो आदि विशाल सामग्री को देख कर अवश्य ही कुछ क्षणों के लिए वे द्विविधा मे पड गये होगे। लेकिन कठिनाइयो से घबराना उनके स्वभाव के विरुद्ध है। अत: धैर्यपूर्वक सयत भाव से उस विपुल सामग्री का अध्ययन करके उन्होने प्राचार्यों का परिचय देने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।
इसके बाद जन-समाज में प्रकाशन का एक नया युग प्रारम्भ हुआ, जिसका श्रेय 'माणिकचन्द्र-अन्यमाला' को और उसके कर्णधार प्रेमीजी को ही है। मगलाचरण, गुरु तया श्रेष्ठ पुरुषो के स्मरण और उदाहरण स्वरूप आये पुरुषो के उल्लेख तथा प्रशस्तियो के प्रामाणिक एव पालकारिक वर्णन में प्रेमीजीने कमाल कर दिखाया। साहित्य समाजोद्भूत होते हुए भी उसकी जीवन-धारा का अक्षय स्रोत है। अतएव उसमें आये विविध सास्कृतिक विषय भी प्रेमीजी की पैनी दृष्टि से नहीं बच सके। फलस्वरूप उन्होने अनेक प्रकार की ऐतिहासिक रचनाएं की, जिन्हें सुविधा के विचार से दो भागो में विभक्त किया जा सकता है-(अ) जनसाहित्य का इतिहाम तथा (मा) स्फुट जैन-सास्कृतिक इतिहास ।
"जन हितैषी' प्र० १२ पु०, ५४१-५६८, प्र० १३ पृ० १०-३५