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....... प्राग्वाट-इतिहास ::
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[द्वितीय
... . वर्तमान में इस शाखा का जैसा, लिखा जा चुका है निवास प्रमुखतः मालवा और कुछ राजस्थान के कोटा, झालावाड़ और मेवाड़-राज्य के लगभग १५० ग्रामों में है ।
प्रमुख ग्राम, नगर जिनमें इस जांगड़ापक्ष के कुल रहते हैं:- इन्दौर, उज्जैन, रतलाम, देवास, महीदपुर, ताल, आलोट, खाचरौद, सुजानपुरा, बंबोरी, जावरा, वरखेड़ा (ताल), मोतीपुरा, जरोद, गरोट, रामपुरा, खड़ावदा, सेमरोल, देहथली, वरखेड़ा (गांगाशाह), साटरखेड़ा, चचोर, टेला, कोला, नागदा, नारायणगढ़, खेजड़या, सावन, भेलखेड़ा, चंदवासा, शामगढ़, रूनीजा, धसोई, सुवासड़ा, धलपट, अजेपुर, भवानीमंडी, पंचपहाड़, सीतामऊ, बालागढ़, जन्नोद, मनासा, मन्दसोर, सूठी, श्यामपुर, नाहरगढ़, लीबांबास, पड़दा, भाटकेड़ी, महागढ़, झालरापाटन, बड़नगर, उन्हेल, वाचखेड़ी, घड़ोद, चचावदा । २. उक्त नगरों के समीपवर्ती छोटे २ ग्रामों में यह पक्ष फैला हुआ है। इस लघुशाखा वाली जांगड़ा-पारवाड़ कही जाने वाली स्वतन्त्र ज्ञाति में इस समय लगभग १०००० दश हजार घरों की संख्या है।
इस जांगड़ा-शाखा के चौवीस गोत्र हैं, जो निम्न दिये जाते हैं:.१ चौधरी, २ सेठ्या, ३ मजावद्या, ४ दानगढ़, ५ कामल्या, ६ धनोत्या, ७ रत्नावत, ८ फरक्या, ६ काला, १० केसोटा, ११ मून्या, १२ घाट्या, १३ वेद, १४ मेथा, १५ घड़या, १६ मँडवाच्या, १७ नभेपुत्या, १८ भूत, १६ डबकरा, २० खरड्या, २१ मांदल्या, २२ उघा, २३ बाड़वा, २४ सरखंड्या ।
तेईसवें और चौवीसवें गोत्रों के कुल प्रायः नष्ट हो गये हैं। ये गोत्र इस शाखा के मूल गोत्र नहीं हैं। ये तो अटके हैं, जो वैष्णवमतावलम्बी बनने पर धन्धा और व्यवसायों पर बने हैं, जो कालान्तर में धीरे २ पड़ी हैं। वैष्णव बनने पर इस शाखा के कुलों का जैनकुलगुरुओं से सम्बन्ध विच्छेद हो गया और उसका फल यह हुआ कि इनके मूल गोत्र धीरे २ विलुप्त और विस्मृत हो गये और अटके ही गोत्र मान ली गई।
नेमाड़ी और मलकापुरी-पौरवाड़
ये दोनों शाखायें जांगड़ा-पौरवाड़ों की ही अंगभूत हैं। इनका अलग पड़ने का कारण समझदार एवं अनुभवी लोग यह बतलाते हैं कि इस ज्ञाति के किसी श्रेष्ठि के यहाँ लड़के का विवाह था। उन दिनों में इस ज्ञाति में यह प्रथा थी कि जिस घोड़े पर वह चढ़कर तोरण-वध करता था, उस घोड़े के ऊपर जितने आभूषण चढ़े हुए
वैष्णव वैश्यज्ञातियों के प्रसिद्ध पुरुषों का ही जब इतिहास नहीं उपलब्ध है, तो साधारण पुरुषों और ज्ञाति जैसी बड़ी इकाई का इतिहास तो कैसे मिल सकता है। जैनसमाज में जैसे प्रतिमादि पर शिलालेख, ग्रंथों में प्रशस्तिया लिखाने की जो प्रथा रही है, अगर वैसी ही अथवा ऐसी ही कोई अन्य प्रथा इन वैष्णवमतालम्बी वैश्यवर्ग में भी होती तो सम्भव है कुछ इतिहास की सामग्री उपलब्ध हो सकती थी और उससे बहुत कुछ लिखा जा सकता था। परन्तु दुःख है कि इतिहास की दृष्टि से ऐसी प्रामाणिक साधन-सामग्री इस