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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[द्वितीय
आज की निर्माणरुचि और पद्धति इससे उल्टी है। श्राज मन्दिर और धर्मस्थानों का बाह्यान्तर उनके आभ्यन्तर की अपेक्षा अधिकतम कलापूर्ण और सुन्दर बनाने की धुन रहती है। यह निष्फल और व्यर्थ प्रयास है। शीत, वात, आतप और वर्षा के व्याघातों को खाकर वे सर्व सुन्दर बाह्यांग विकृत, खण्डित और मैले और रूपविहीन हो जाते हैं और फल यह होता है कि दर्शकों को लुभाने, उनमें रुचि और पुनः २ यात्रा करने की भावना और भक्ति को उत्पन्न और वृद्धिंगत करने के स्थान में उनकी रुचि से उतर जाते हैं। इस प्रकार बाह्यान्तर को सजाने में व्यय किया हुआ पैसा कुछ वर्षों तक प्रभावकारी रहकर फिर अवशिष्ट भविष्य के लिये उस स्थान के महत्व, प्रभाव और लाभ को सदा के लिये कम करने वाला रह जाता है । विमलशाह इस विचार से कितना ऊँचा बुद्धिमान् ठहरता है-समझने का वह एक विषय है। हमारे पूर्वज बाहरी देखाव, आडम्बर को पाखण्ड, झूठा, अस्थायी, निरर्थक, समय-शक्ति-द्रव्य-ज्ञान-प्रतिष्ठा-गौरव का नाश करने वाला समझते थे और इसीलिये वे आभ्यन्तर को सजाने में तन, मन और धन सर्वस्व अर्पण कर देते थे—यह भाव हमको इस अलौकिक सुन्दर विमलवसति के बाहर और भीतर के रूपों को देखने से मिलते हैं-शिक्षा की चीज है।
विमलवसति का मूलगंभारा और गूढमण्डप दोनों सादे ही बने हुये हैं। इन दोनों में कलाकाम नहीं है। शिखर नीचा और चपटा है। फलतः गूढमण्डप का गुम्बज भी अधिक ऊँचा नहीं उठाया गया है। गूढमण्डप मूलगम्भारा और गूढ़मंडप
चौमुखा बना हुआ है। प्रत्येक मन्दिर का मूलगम्भारा और गूढमण्डप उसका मुख और उनकी सादी रचना में भाग अर्थात् उत्तमांग होता है । अन्य अंगों की रचना कलापूर्ण और अद्वितीय हो और विमलशाह की प्रशंसनीय ये सादे हो तो इसका कारण जानने की जिज्ञासा प्रत्येक दर्शक को रहती है। विमलविवेकता
शाह ने अपनी आँखों सोमनाथ-मन्दिर का विधर्मी महमूद गजनवी द्वारा तोड़ा जाना और सोमनाथ प्रतिमा का खण्डित किया जाना देखा था। सोमनाथ मन्दिर समुद्रतट पर मैदान में आ गया है। बुद्धिमान् एवं चतुर नीतिज्ञ विमलशाह ने उससे शिक्षा ली और विमलवसति को अतः निर्जन, धनहीन भूभाग में आये हुये दुर्गम अर्बुदाचल के ऊपर स्तह से लगभग ४००० फीट ऊँचाई पर बनाया, जिससे आक्रमणकारी दुश्मन को वहाँ तक पहुँचने में अनेक कष्ट और बाधायें हों और अन्त में हाथ कुछ भी नहीं लगे, धन और जन की हानि ही उठाकर लौटना पड़े या खप जाना पड़े। कोई बुद्धिमान् विधर्मी आक्रमणकारी दुश्मन ऐसा निरर्थक श्रम नहीं करेगा ऐसा ही सोचकर विमलशाह ने ऐसे विकट एवं दुर्गम और इतने ऊँचे पर्वत पर विमलवसति का निर्माण करवाया और मूलगम्भारा और गूढमएडपों की रचना एकदम सादी करवाई, जिससे विधर्मी दुश्मन को अपनी क्वेच्छाओं की तृप्ति करने के लिये तोड़ने फोड़ने को कुछ नहीं मिले और इस प्रकार मूल पूज्यस्थान क्षुद्रहृदयों के विधर्मी-जनों के पामर हाथों से अपमानित होने से बच जाय । यहाँ हमें विमलशाह में एक विशेषता होने का परिचय मिलता है। वह प्रथम जिनेश्वरोपासक था और पश्चात् सौन्दर्योपासक । वह अत्यन्त सौन्दर्यप्रेमी था, विमलवसति इसका प्रमाण है, परन्तु इससे भी अधिक वह जिनोपासक था कि उसने मूलगंभारे और गूढमण्डप में सौन्दर्य को स्थान ही नहीं दिया और उन्हें एक दम आकर्षणहीन और सौन्दर्य-विहीन और सुदृढ़ बनाया, जिससे उसको उसके प्रभु जिनेश्वर की प्रतिमा का गुण्डेजनों के हाथों अपमानित होने का कारण नहीं बनना पड़े।
मन्दिर के शिखर और गुम्बज अधिक ऊँचे नहीं बने हैं-इसका तो कारण यह है कि अर्बुदाचल पर वर्ष में एक-दो बार भूकम्प का अनुभव होता ही रहता है। अतः उनके अधिक ऊँचे होने पर टूटने और गिरने की शंका