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:: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ::
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वाचक-पद की प्राप्ति के पश्चात् श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने गुरु श्रीमद् देवसुन्दरसरि की आज्ञा लेकर अपने शिष्य एवं साधु-मण्डली के सहित मेदपाट-प्रदेश की ओर विहार किया । अनुक्रम से विहार करते हुये देवकुलपाटक
(देलवाड़ा) के सामीप्य में पधारे । उन दिनों मेदपाटनरेश महाराणा लाखा थे, जो मेदपाटदेश में विहार
जैनधर्म के प्रति बड़े ही श्रद्धालु थे। महाराणा लाखा के प्रधान श्रेष्ठि रामदेव थे। महाराणा के अद्वितीय प्रीति-भाजन व्यक्ति उनके ही ज्येष्ठ पुत्र चुण्डा थे, जो अति ही प्रभावशाली व्यक्ति
और प्रधान रामदेव के परम मित्र एवं स्नेही थे । प्रधान रामदेव के साहचर्य से युवराज चुण्डा भी जैन-धर्म का बड़ा मान करते थे। जब महाराणा लाखा को राजसभा में यह शुभ समाचार पहुंचे कि युवान वाचक श्रीमदू सोमसुन्दरसूरि का पदार्पण मेदपाटप्रदेश के भीतर हो गया है, प्रधान रामदेव और महायुवराज चुण्डा दोनों ही महाराणा की आज्ञा से आपश्री के दर्शन करने के लिये गये और उनकी सेवा में पहुंच कर बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से अभिवंदन किया और उनके साथ विहार में रह कर गुरुभक्ति का लाभ लिया तथा जब श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि का देवकुलपाटक में प्रवेश हुआ तो राजाज्ञा निकाल कर राजसी-शोभा से हर्षोल्लासपूर्वक नगर-प्रवेश करवाया।
देवकुलपाटक में आपश्री कुछ दिवस विराजे और विहार करके मेदपाटप्रदेश की भूमि को अपने वचनामृत से प्लावित करने लगे । वन, ग्राम, नगरों में विहार करते हुए उपाध्यायों में मुकुटरूपसूरि अपने महान् प्रताप को प्रसारित करते हुते मिथ्यात्व दुर्मति का नाश करने लगे, पाप का मूलोच्छेद करने लगे, पृथ्वी में दुर्लभ ऐसे समकितरत्न को मुक्तहस्त भव्यजनों को प्रदान करने लगे। किसी को देशविरति, किसी को सर्वविरति, किसी को शीलव्रत, किसी. को दुःख-दरिद्र को नाश करने में समर्थ ऐसी कर्मक्रिया, किसी को भव-भव के पापों का नाश करने वाली देव-गुरु-भक्ति ग्रहण करवाने लगे । बहुत दिनों तक मेदपाटभूमि में इस प्रकार युवान मुनिपति अपनी साधु एवं शिष्य-मण्डली-सहित भ्रमण करके धर्म की ज्योति जगा कर पुनःअणहिलपुरपत्तन की ओर विहार कर चले क्योंकि अति वृद्ध गुरु श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के दर्शन करने की लालपा सर्व साधु एवं स्वयं आपश्री के हृदय में उत्कट जाग्रत हो गई थी और वे अणहिलपुरपत्तन में ही उन दिनों विराज रहे थे। ग्रामानुग्राम एवं दुर्गम पार्वतीय भागों में विहार करते हुये अनुक्रम से अणहिलपुरपत्तन में पहुँचे और गुरु के दर्शन करके अति ही आनंदित हुये ।
___ अणहिलपुरपत्तन में नृसिंह नामक एक अति धर्मिष्ठ एवं अत्यंत धनी श्रावक रहता था। वह युवान मुनिपति वाचक सोमसुन्दरसूरि के तेज एवं दृढ़ चारित्र को देख कर अति ही मुग्ध हुआ और गुरुवर्य श्रीमद् देवसुन्दरमरि से अवसर देखकर निवेदन करने लगा कि उसकी ऐसी इच्छा है कि मुनिपति सोमसुन्दरसूरि को आचार्यपद से अलंकृत किया जाय और उसको महोत्सव का समारम्भ करने का आदेश दिया जाय । गुरु देवसुन्दरसूरि ने श्रे. नृसिंह की श्रद्धा एवं भक्तिभरी विनती स्वीकार करली और फलतः वि० सं० १४५७ में अणहिलपुरपत्तन में महामहोत्सवपूर्वक वाचक मुनिपति सोमसुन्दरसरि को २७ सत्ताईस वर्ष की वय में आचार्यपद से अलंकृत किया गया । इस महोत्सव के समारंभ पर श्रे. नृसिंह ने कुंकुम-पत्रिकायें प्रेषित करके दूर २ के संघों को, प्रतिष्ठित . कुलों एवं सद्गृहस्थों को निमंत्रित किया था । श्रे. नृसिंह ने अति हर्षित होकर इस शुभावसर पर बहुत ही द्रव्य याचकों को दान में दिया, विविध मिष्टान्नवाला नगर-प्रीति-भोज किया और सधर्मी बंधुओं की अच्छी सेवा-भक्ति की।