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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[ तृतीय
कालूशाह, वक्षी, जीवराज, श्रा० अनाई, देवराज और उसका पुत्र विमलदास, मं० सहसराज, श्रे० पचकल, खीमजी, मं० धनजी, सा० सोनी, श्रे० रामजी, लहुजी, रंगजी आदि अनेक श्रेष्ठि व्यक्ति और श्राविका स्त्रियां हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि प्राग्वाटवर्ग के स्त्री और पुरुषों में जैसी देवभक्ति रही है, वैसी साहित्यभक्ति भी रही है। प्रस्तुत इतिहास में उक्त व्यक्तियों द्वारा लिखवाये गये ग्रंथों में उनकी दी गई प्रशस्तियों के आधार पर उनका यथाप्राप्त वर्णन दे दिया गया है, अतः यहां उनके साहित्यप्रेम के ऊपर अधिक लिखना व्यर्थ ही प्रतीत होता है।
प्राग्वाटवर्ग के व्यक्तियों की जिनेश्वरभक्ति भी इस धर्म-संकटकाल में भी नहीं दब पाई थी, ऐसा कहा जा सकता है । तब ही तो शिल्प का अनन्य उदाहरणस्वरूप श्री राणकपुरतीर्थ-धरणाविहार नामक आदिनाथ-जिनालय, अर्बुदस्थ अचलगढ़दुर्ग में श्री चौमुखादिनाथ-जिनालय और सिरोही में श्री आदिनाथ-जिनालय के निर्माण संभव हुये थे। इतना ही नहीं अचलगढ़स्थ जिनालय में जो बारह(१२) सर्वधातुप्रतिमायें वजन में लगभग १४४४ मण (प्राचीन-तोल) की संस्थापित करवाई गई थीं, उनमें कई एक तो प्राग्वाट-व्यक्तियों द्वारा विनिर्मित थीं। ये प्रतिमायें और ये उक्त जिनालय इनकी जिनेश्वरभक्ति के साथ में इनका कलाप्रेम भी प्रकट करती हैं । उक्त प्रतिमाओं और तीनों मंदिरों का कला की दृष्टि से प्रस्तुत इतिहास में पूरा २ वर्णन दिया गया है। यहां इतना ही कहना है कि प्राग्वाट-व्यक्तियों का कलाप्रेम ही अन्य समाजों के कला एवं शिल्प के प्रेमियों को भी भूत में और वर्तमान में भी जैन तीर्थों के प्रति आकर्षित कर रहा है और भविष्य में भी करता ही रहेगा। जैनसमाज तो इन धर्म-प्रेमी, शिल्पस्नेही व्यक्तियों से गौरवान्वित है ही।
गूर्जरसम्राटों की शोभा और संतति की इति के साथ में प्राग्वाटवर्ग की राजनैतिक ऊंची स्थिति भी गिर गई और नष्टप्रायः हो गई । अब वे बड़े २ साम्राज्यों के, राज्यों के महामात्य, मंत्री, दंडनायक जैसे उच्च पदों पर
नहीं रह गये । राजस्थान और मालवा में भी उनकी राजनैतिक स्थिति अपने समाज के राजनैतिक स्थिति
वर्गों में परस्पर ईर्षा, मत्सर, द्वेष जैसे फूट के पोषक विकारों के जोर के कारण अच्छी नहीं थी। अब वे केवल छोटे २ ग्रामों में व्यापारीमात्र रह गये थे । धरणाशाह का वंश अवश्य विक्रम की पन्द्रहवीं
और सोलहवीं शताब्दी में समाज और मेदपाट-महाराणा और माण्डगढ़ के बादशाह की राजसभा में अति ही सम्मानित रहा है, परन्तु ऐसे एक-दो या कुछ ही व्यक्तियों से सारा समाज राजनैतिक क्षेत्र में उन्नत रहा नहीं माना जा सकता।
श्री गुरुकुल प्रिं० प्रेस, ब्यावर
ता० १६-८-१६५३
लेखकदौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी.ए.