Book Title: Pragvat Itihas Part 01
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Pragvat Itihas Prakashak Samiti

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Page 719
________________ ५२० . ] :: प्राग्वाट - इतिहास : [ तृतीय अवकाश प्राप्त हुआ था। इसी का फल है कि विक्रम की सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दियों में यवन राज्यों में कई छोटे-बड़े जैन मंदिर बने, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण हुये अथवा विधर्मीजनों द्वारा खण्डित किये गये मंदिरों का, तीर्थों का जीर्णोद्धार फिर से करवाया जा सका, अनेक स्थलों में अंजनशलाका - प्राण-प्रतिष्ठोत्सव कराये जा सके तथा जैन साधु अपने २ चातुर्मास में अनेक पुण्य के कार्य करवा सके और नवीन अगणित जैन बिंबों की स्थापनायें की जा सकीं । इसका एक कारण यह भी था कि मुगलसम्राटों की नीति मेल- झोल की थी। वे सर्व ही धर्मों से अपना संबंध बनाये रखना चाहते थे। वैसे उनकी राजसभाओं में भी जैनाचाय्यों का अत्यधिक प्रभाव रहा है । २ ग्रामों में जो यवन- राज कर्मचारी रहते थे, बड़े ही दुष्ट और अत्यात्रस्त ही बनी रहती थी, जिसका रक्षक भगवान् ही होता था । फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि छोटे चारी ही होते थे, अतः ग्राम की जनता तो मुगलराज्यकाल के अन्त में अंग्रेज भारत में अपना राज्य जमाने का सफल प्रयत्न कर रहे थे । उन्होंने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगलराज्य का अन्त करके भारत में बृटिशराज्य की नींव डाली और उनका राज्य धीरे २ बढ़ता ही गया । बृटिशराज्य जमा भेदनीति के आश्रय और कुछ लोकप्रियता की प्राप्ति पर । अंग्रेजों ने मुसलमानों के समान किसी ज्ञाति पर बलात्कार नहीं किया, उनकी बहू-बेटियों का सतीत्व हरण नहीं किया, धर्मस्थानों, मंदिरों को नहीं तोड़ा, धर्मपर्वो', त्यौहारों के मनाने में बाधायें उत्पन्न नहीं कीं, तीर्थयात्राओं, संघों के निकालने में रुकावट नहीं डाली, अतः वे इस दशा में भी लोकप्रिय बनते गये यह सब पुनः हुआ, परन्तु आर्य धर्मों में वह पूर्व-सी जागृति नहीं आ पाई। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि जैनाचाय्यों ने विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी से लगाकर विक्रम की बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक असंख्यक नवीन जिनबिंबों की स्थापनायें करवाई, छोटे-बड़े कई नवीन जिनालय बनवाये, अनेक बढ़ी २ अंजनशलाकार्ये, प्राणप्रतिष्ठोत्सव, अन्य धर्मोत्सव करवाये, संघ निकलवाये और पर्वो की, तपों की आराधनायें करवाई । इन जैनाचाय्यों में महाप्रभावक श्राचार्य भी कई - एक हो गये हैं, जिनमें प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि, आणंद विमलसूरि, कल्याणविजयगणि, विजयतिलकसूरि, विजयानन्दसूरि, लौंकागच्छसंस्थापक श्रीमान्- लोकाशाह, श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ संस्थापक श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसूरि, खरतरगच्छीय उपाध्याय श्रीमद् समयसुन्दर आदि कई नामांकित साधु, आचार्य, श्रावक हुए हैं, जिन्होंने पुनः जैनधर्म में जाहोजलाली लाने का प्राण-प्रण से संकल्प करके कार्य करने वालों में भारी भाग लिया हैं। 1 पूर्व ही लिखा जा चुका है कि यवनसत्ता जब तक भारत में स्थापित रही, भारत में धर्म, धन, प्राण, मान स्त्री सब संकटग्रस्त ही रहे । राज्याधिकारी विधर्मी, अन्यायी, दुराचारी, लंपटी होते थे। ग्रामों की जनता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति बड़ी ही दयनीय थी । व्यापार की दशा बिगड़ चुकी थी । धन को भूमि में स्थिति गाड़ कर रखते थे | विवाहोत्सवों में, धर्मपत्रों में भी आभूषण पहिनते हुये स्त्री और पुरुष डरते थे । अत्याचारी यवन- शासकों, राज-कर्मचारियों की स्त्री और कन्यापहरण की दुर्नीति से बालविवाह और पर्दाप्रथा जैसी समाजघातक प्रथाओं का जन्म हो गया था और सुदृढ़ एवं विस्तृत होती जा रही थीं। मार्गों में सदा चोर, लुटेरों का डर रहता था। युद्ध के समय में खेती नष्ट करदी जाती थी, जिसका कोई सरकार की ओर से मूल्य नहीं चुकाया जाता था। ऐसी स्थिति में जैन समाज भी आर्थिक स्थिति में निर्बल पड़ा । पहिले से ही

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