Book Title: Pragvat Itihas Part 01
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Pragvat Itihas Prakashak Samiti

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Page 720
________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ ५२१ समाज के वर्गों में परस्पर कड़ता तो बढ़ती ही जा रही थी । परस्पर अब कम्या - व्यवहार सर्वथा बंद ही हो गया था। लघुशाखा और बृहदशाखाओं का अस्तित्व पूरा बन चुका था। प्रतिमालेखों, प्रशस्तिग्रन्थों में भी अ 'लघुशाखीय' और 'बृहदशाखीय' शब्दों का ग्रन्थ लिखाने वालों की प्रशस्तियों में लिखा जाना प्रारंभ हो गया था । पहिले के समान अब तो अन्य उच्च कुलीन परिवार जैन नहीं बनाया जारहा था। बल्कि सामाजिक प्रबन्ध इतना कठोर बन रहा था कि साधारण-सी सामाजिक त्रुटि पर कुल समाज से बहिष्कृत कर दिये जाते थे । मेरे अनुमान से दस्सा और बीसा-भेदों के उपरांत जो पांचा, ढाईया और कहीं २ सवाया भेदों का अस्तित्व देखने में आता है, उनकी उत्पत्तियां यवनराज्यकाल में ही हुई हैं, जब कि ज्ञातिवाद का जोर भारी बढ़ चला था। समाज बाहर से संकटग्रस्त और भीतर से छिन्न-भिन्न हो रहा था। समाज में ऐक्य, सौहार्द, पारस्परिक स्नेह जैसे भाव अंतप्रायः हो गये थे । पहिले जैसा प्राग्वाट, श्रोसवाल, श्रीमाल वर्गों में भी स्नेह और भ्रातृभाव नहीं रह गया था । 1 विक्रम की आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के लम्बे समय में प्राग्वाटवर्ग ने जो मान, प्रतिष्ठा, कीर्त्ति, धनवैभव प्राप्त किया था और अपनी समाज के अन्य वर्गो से ऊंचा उठा हुआ था, अपनी समाज में यवनों के राज्यकाल में वह धन में, मान में उतना ही नीचा गिरा । बाल-विवाह और पदप्रथाओं का इसमें भी जन्म हो गया और वे दिनोंदिन दृढ़तर ही बनती रहीं । नगरों को छोड़ कर अन्य कुलों की भांति प्राग्वाटवर्ग के कुल भी दूर जंगल-पर्वतों में, छोटे २ ग्रामों में, रहने लगे, जहां यवन - आततायी एकाएक नहीं पहुँच सकते थे और साधारण जीवन व्यतीत करने लगे । 1 साहित्य और शिल्प यवनराज्यकाल में जैसा धर्म खतरे में था, धर्म का आधारभूत साहित्य भी खतरे में था । यवनों में जैन, वेद और बौद्ध साहित्य को सर्वत्र नष्ट करने में कोई कमी नहीं रक्खी। जैनसाहित्य भी बहुत ही नष्ट किया गया । जैसलमेर के ज्ञान भण्डार की स्थापना भी बहुत संभव है इसी संकटकाल में हुई । प्रावावर्ग के श्रीमंत एवं साहित्यसेवी व्यक्तियों ने अपने धर्म के ग्रन्थों की सुरक्षा में सराहनीय भाग लिया । यद्यपि इस संकटकाल में अधिक संख्या में और विशाल ज्ञान भण्डारों की स्थापना तो नहीं की जा सकीं, परन्तु धर्मग्रन्थों की प्रतियां लिखवाने में उन्होंने पूरा द्रव्य व्यय किया। इस काल के प्रसिद्ध साहित्यसेवियों में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० यशस्वी पेथड़ का नाम उल्लेखनीय है । पेथढ़ का विस्तृत इतिहास इस प्रस्तुत इतिहास में आ चुका है। यहां इतना ही कहना है कि यह बड़ा प्रभावक था, जब ही अल्लाउद्दीन जैसे हिन्दूधर्मविरोधी, अत्याचारी बादशाह के काल में भी वह चार ज्ञानभण्डारों की स्थापना करने में सफल हुआ था । इतना ही नहीं उसने तो लूणसिंहवंसहिका का भी अतुल द्रव्य व्यय करके जीर्णोद्धार करवाया था और उसने कई एक अन्य पुण्य के बड़े २ कार्य किये थे । इस काल में ताड़पत्र अथवा कागज पर धर्मग्रंथों की प्रतियां अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को व्यम करके लिखाने वालों में मुख्यतः श्री० धीणा, सज्जन और नागपाल, श्रसपाल, सेवा, गुणधर, हीरा, देदा, पृथ्वीभट, महं० विजयसिंह, श्रा० सरणी, श्रा० विकी, श्रे० थिरपाल, वोढ़कपुत्र, सांगा और गांगा, अभयपाल, महण, श्रा० स्याणी, श्रा० कडू, श्रा० आसलदेवी, श्रा० श्रीमलदेवी, श्रा० आन्हू, श्रा० रूपलदेवी, श्रे० धर्म, श्रा० माऊ, श्रे० धर्मा, गुणेयक, कोठारी बाघा, मारू, कर्मसिंह, मोमराज, मं० गुणराज श्रे० केहुला, जिणदत्त, सदूदेवी

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