________________
३२६ ]
:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
सोम की दीक्षा
उन दिनों में जैनाचार्यों में श्रीमद् जयानन्दसूरि का मान अत्यधिक था। गुरु का आगमन श्रवण करके समस्त नगर के जैन- जैन जन एवं राजा और उसके अधिकारीजन अति हर्षित होकर गुरु का स्वागत करने के लिये नगर के बाहर गये और गुरु का नगर प्रवेश प्रति धूम-धामपूर्वक करवाया । सज्जन मंत्री भी गुरु के स्वागतार्थ अपने पुत्र और स्त्री सहित गया था । श्रीमद् जयानन्दसूरि के दिव्य तेज एवं वाणी का बालक सोम पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह वैराग्यरस में पगने लगा । गुरु की देशना श्रवण करके सोम जैसे प्रतिभाशाली एवं होनहार बालक के हृदय में एक दम ज्ञान का प्रकाश जगमगा उठा और घर आकर तो वह एकदम गूढ़ विचारों में लीन हो गया। बालक सोम के माता और पिता को सोम के चिंतन का पता नहीं लगा ।
सज्जन मंत्री नित्य नियमपूर्वक सपरिवार गुरु की शास्त्रवाणी श्रवण करने जाता था । श्रीमद् जयानंदसूरि ने सोम को उसकी दिव्य आकृति से जान लिया कि यह लड़का आगे जाकर महान् तेजस्वी एवं प्रभावक निकलेगा; अतः उन्होंने सज्जन श्रेष्ठ से सोम की मांग की। सज्जन श्रेष्ठि और उसकी स्त्री माल्हणदेवी ने पुत्र-मोह के वश होकर प्रथम तो कुछ आना-कानी की, परन्तु गुरु के समझाने पर उन्होंने अपने प्राणप्रिय पुत्र सोम को स्वयं अपने हाथों दीक्षा देकर गुरु की सेवा में अर्पण करने का निश्चय कर लिया। फलतः अति धूम-धाम से महामहोत्सव पूर्वक वि० सं० १४३७ में सज्जन मंत्री ने अपने पुत्र सोम और एक पुत्री को श्रीमद् जयानंदमूरि के कर कमलों से भगवतीदीक्षा दिलवाकर अपना गृहस्थ-जीवन सफल किया। माल्हणदेवी भी अपने पुत्र एवं पुत्री दोनों को दीक्षित देख कर अपना सौभाग्य मानने लगी। गुरु ने नवदीक्षित बालमुनि का नाम सोमसुन्दर ही रक्खा |
श्रीमद् जयानंदसूरि का कुछ ही समय पश्चात् स्वर्गवास हो गया और उनके पाट पर महान् तेजस्वी आचार्य श्री देवसुन्दरसूरि प्रतिष्ठित हुये । श्रीमद् देवसुन्दरसूरि की बालमुनि सोमसुन्दरसूरि पर महती कृपा थी । बाल-मुनि सोमसुन्दर का उन्होंने मुनि सोमसुन्दर को विद्याध्ययन करने के लिये महाविद्वान् मुनिवर्य ज्ञानसागरजी विद्याध्ययन और गणिपद के पास भेज दिया । बालमुनि सोमसुन्दर प्रखर बुद्धिशाली तो थे ही, गुरु जितना तथा वाचक पद की प्राप्ति भी पाठ देते, वे तुरन्त ही याद कर लेते। थोड़े ही वर्षो में उन्होंने व्याकरण, साहित्य, छंद, न्याय, गमों का इतना अच्छा और गहरा अभ्यास कर लिया कि उनकी विद्या की प्रखरता, ज्ञान की विशालता देखकर श्रीमद् देवसुन्दर सूरि अति ही मुग्ध हुये और उन्हें गरि पद प्रदान किया तथा वि० सं० १४५० में तो महामहोत्सव का समारंभ करके बड़ी ही धूमघाम से उनको वाचकपद भी प्रदान कर दिया। आपकी आयु इस समय केवल २० वर्ष की ही थी | ऐसी अल्प आयु में बहुत कम मुनिवरों को वाचकपद जैसे अति उत्तरदायित्वपूर्ण पद की प्राप्ति होती है । गुरु ने श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि को अ सर्व प्रकार योग्य एवं समर्थ समझ कर स्वतंत्र विहार करने की आज्ञा भी प्रदान कर दी।
१ - सोमसुन्दरसूरि के पिता माता प्राग्वाटज्ञातीय थे- देखो जे० सा० इति० पृ० ५०१ पर ले० सं० ७२६.
२ - ' तत्पट्टे ५० सोमसुन्दर सूरि- प्राग्वंशी राणपुर प्रतिष्ठाकृत, पालापुरे भगिन्या सह संयमं जग्राह ।' प० समु० पृ० १७२.