________________
३२८
:: प्राग्वाट-इतिहास::
[तृतीय
नृसिंह मंत्री ने इस प्राचार्यपदोत्सव के अवसर पर अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को हर्षपूर्वक इतना अधिक व्यय किया कि जिसका वर्णन और अंकन करना भी कठिन है ।
इस समय तक श्रीमद् देवसुन्दरसरि अधिक वृद्ध हो गये थे। कुछ ही समय पश्चात् वे स्वर्ग को सिधार गये और गच्छ का भार श्रीमद् सोमसुन्दरपरि के कंधों पर आ पड़ा। श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि सर्व प्रकार से योग्य तो थे ही, र
उन्हान जिस प्रकार जैन-शासन की सेवा की, गच्छ का गौरव बढ़ाया वह स्वर्णाक्षरों वास और गच्छपतिपद की में अनेक ग्रंथों के पत्रों में उल्लिखित है। यहाँ तो उसका साधारण शब्दों में स्मरण प्राप्ति तथा मोटा ग्राम में मात्र करना ही बन पड़ेगा । वृद्धनगर अथवा मोटाग्राम, जिसको वड़नगर (गुजरात) श्री मुनिसुन्दरवाचक को भी कहते हैं, उस समय अति समद्ध एवं विशाल नगर था । श्रीमद् सोमसन्दरपरि अपनी सरिपद प्रदान करना
साधु एवं प्रखर विद्वान् शिष्य-मण्डली के सहित भ्रमण करते हुये नगर ग्रामों में अनेक प्रकार के सुधार करते हुये उक्त मोटा ग्राम में पधारे । मोटा ग्राम में देवराज नामक अति प्रतिष्ठित श्रीमंत एवं जिनेश्वर और गुरु का परम भक्त सुश्रावक रहता था। उसका छोटा भाई हेमराज था, जो राजा का विश्वासपात्र मंत्री था । मंत्री हेमराज से छोटा घटसिंह नामक तृतीय भ्राता था। तीनों भ्राता अधिकाधिक गुणी, धर्मात्मा एवं सुश्रावक थे। दोनों छोटे भ्राता ज्येष्ठ भ्राता देवराज के पूर्ण भक्त एवं परम आज्ञाकारी थे। नगर में महान् तेजस्वी प्रखर पंडित एवं जैनाचार्यों में मुकुटरूप युगप्रधानसमान आचार्य श्रीमद् सोमसुन्दरमरि का पर्दापण हुआ सोच कर देवराज का मन अत्यंत ही हर्षित हुआ और उसके मन में यह भाव उठे कि वह गुरु की आज्ञा लेकर कोई शुभ कार्य में अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करे। इस प्रकार धर्ममूर्ति देवराज ने अपने मन में निश्चय करके अपने दोनों अनुवर्ती योग्य भ्राताओं की सम्मति ली। वे भला शुभावसर पर द्रव्य का सदुपयोग करने, कराने में और अनुमोदन करने में कब पीछे रहने वाले थे । उन्होंने तुरन्त ही ज्येष्ठ भ्राता देवराज की बात का समर्थन किया
और देवराज ने अपने भ्राताओं की इस प्रकार सुसम्मति लेकर गुरु के समक्ष आकर अपनी सद्भावनाओं को व्यक्त किया और निवेदन किया कि आचार्यपदोत्सव जैसे महा पुण्यशाली कार्य का समारम्भ करवा कर वह अपने द्रव्य का सदुपयोग करना चाहता है । श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने श्रे० देवराज की विनती स्वीकार करली और भाचार्यपदोत्सव का शुभमुहूत भी तत्काल निश्चित कर दिया।
. श्रे० देवराज और उसके अनुज दोनों भ्राताओं ने कुकुमपत्रिकायें लिख कर दूर २ के संघों को आमंत्रित किया और महामहोत्सव का समारंभ किया। इस प्रकार वि० सं० १४७८ के शुभमुहू त में गच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसरि ने श्रीमुनिसुन्दरखाचक को सरिपद से अलंकृत किया। आचार्यपदोत्सव की शुभसमाप्ति करके श्रे० मुश्रावक देवराज ने गच्छपति की आज्ञा लेकर श्रीमद् मुनिसुन्दरसूरि की अध्यक्षता में शत्रुजय, गिरनारतीर्थों की संघयात्रा की और संघपति के अति गौरवशाली पद को प्राप्त किया । संघ में ५०० गाड़ियाँ थीं और संघ की सुरक्षा के लिये ५०० सुभट थे। आचार्यपदोत्सव और संघयात्रा में सुश्रावक देवराज ने पुष्कल द्रव्य का व्यय याचकों को अमूल्य भेटें दी और सधर्मी बन्धुओं की अच्छी सेवा-भक्ति की एवं अमूल्य पहिरामणियाँ दीं। . एक वर्ष आपश्री का चातुर्मास श्रे० संग्राम सोनी की प्रमुख विनती तथा मांडवगढ़ के श्री संघ की श्रद्धापूर्ण विनती से माण्डवगढ़तीर्थ में हुआ था । उक्त चातुर्मास का व्यय अधिकांशतः संग्राम सोनी ने वहन किया था ।