________________
३४८)
:: प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
दीचा अहमदाबाद में श्रीमद् हीररत्नसूरि के करकमलों से वि० सं० १७१४ में हुई थी और उनका नाम भावरत रक्खा गया था। ये प्राचार्य बड़े ज्ञानी एवं सरल स्वभावी थे । तपागच्छाधिराज श्रीमद् विजयदानसरि के पश्चात् उनके पट्टधर अकबर सम्राट्-प्रतिबोधक जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसरि थे। विजयहीरसरि के पीछे गच्छ में दो शाखायें प्रारम्भ हो गई थीं। श्रीमद् विजयराजसरि के पट्ट पर अनुक्रम से श्रीमद् विजयरत्नसरि, हीररत्नसरि और हीररत्नसूरि के पट्ट पर जयरनसूरि हुये। जयरत्नसूरि के पश्चात् उनके गुरुभ्राता श्रीमद् भावरत्नसूरि पट्टनायक बने ।ये अत्यन्त तेजस्वी एवं प्रभावक आचार्य थे । ये विक्रम की अट्ठारवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में विद्यमान थे ।१
तपागच्छीय श्रीमद् विजयमानसूरि दीक्षा वि० सं० १७१६. स्वर्गवास वि० सं० १७७०
आपका जन्म वि० सं० १७०७ में बुरहानपुर निवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वाघजी की पत्नी श्रीमती विमलादेवी की कुक्षि से हुआ था। आपका जन्मनाम मोहनचन्द्र था । आपके बड़े भ्राता का नाम इन्द्रचन्द्र था । वि० सं० १७१४ में दोनों भ्राताओं ने साध-दीक्षा ग्रहण की। मानविजय आपका नाम रक्खा गया। तीस वर्षे की वय में वि० सं० १७३६ में प्रसिद्ध नगर सिरोही में श्रीमद विजयराजसरि ने आपको सर्व प्रकार योग्य समझ कर बड़ी धूम-धाम एवं उत्सव पूर्वक आपको भारी जनमेदिनी के समक्ष आचार्यपद प्रदान किया। यह उत्सव श्रे० धर्मदास ने बहुत व्यय करके सम्पन्न किया था। वि० सं० १७४२ आषाढ़ कृ. १३ को खंभात में श्रीमद् विजयराजसरि का स्वर्गवास हो गया। उसी संवत् में फागण कृ. ४ को आपको विजयराजसरि के पट्ट पर विराजमान किया गया । साणंद में वि० सं० १७७० माघ शु० १३ को आपका स्वर्गवास हो गया ।२
तपागच्छीय श्रीमद् विजयऋद्धिसूरि दीक्षा वि० सं० १७४२. स्वर्गवास वि० सं० १८०६
मरुधरप्रान्त के थाणा ग्राम में रहने वाले प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० जशवंतराज की धर्मपत्नी श्रीमती यशोदा की३ कृति से वि० सं० १७२७ में आपका जन्म हुआ। वि० सं० १७४२ में श्रीमद् विजयमानसूरि के कर-कमलों से दोनों पिता-पुत्रों ने साधु-दीक्षा ग्रहण की । आपका नाम सूरविजय रक्खा गया। सिरोही में विजयमानसूरि ने
१-० गु० क० भा० ३ खण्ड २ पृ० २२६०-६१ २-३-जै० गु० क० मा०२ पृ०७५१